'दलितों के पुरोहित' होने का गर्व
हिंदुओं की तीर्थनगरी हरिद्वार में आज भी जब कोई अस्थि-विसर्जन या कोई मृत्यु के बाद का संस्कार करने पहुंचता है तो पहले उसकी जाति पहचान पूछी जाती है.
अगर वो अनुसूचित जाति का हुआ तो स्थानीय पंडित-पुरोहित उसका संस्कार करवाने और दान-दक्षिणा लेने से हिचकते हैं.
लेकिन इसी हरिद्वार में एक पुरोहित परिवार ऐसा भी है जो सामाजिक निषेध और रूढ़ि के इस बंधन को तोड़कर अनुसूचित जाति के लोगों का धार्मिक संस्कार करवाता है. भले ही समांतर व्यवस्था खड़ी करने के कारण खुद उसे पुरोहित समाज के बहिष्कार का सामना करना पड़ा है.
इस परिवार ने घाट पर अपनी नियत जगह के पास स्पष्ट तौर पर लिख रखा है कि ये केवल अनुसूचित जाति-जनजाति के लोगों का संस्कार आदि करवाते हैं.
हालांकि ऐसा नहीं है कि बाकी के पुरोहित दलितों का कोई संस्कार नहीं करवाते. कुछ पुरोहित अच्छी आर्थिक स्थिति वाले और बड़ा दान-पैसा देने वाले दलित परिवारों का संस्कार भी करवाते हैं पर ऐसा बहुत खुलकर नहीं किया जाता.
'दलितों के पंडित' के नाम से मशहूर इस परिवार के पंडित अशोकनाथ कहते हैं, "पंडों की आम समिति गंगा सभा हमें सदस्य नहीं बनाती. हमें मान्यता नहीं देती और न ही कोई सवर्ण हमसे संस्कार करवाने आता है लेकिन हमें अपने फैसले पर कोई पछतावा नहीं है."
पीढ़ियों की परंपरा
दरअसल, इस दलितों के पंडित परिवार की यह परंपरा आज की नहीं है बल्कि पीढ़ियों पहले हरिद्वार में गंगातट पर इस परंपरा की शुरुआत हुई थी.
हमारी सामजिक व्यवस्था का सबसे बड़ा दोष यही है कि वो हर किसी को ब्राह्मण बनने और ब्राह्मणवादी वर्चस्व के सामने नतमस्तक होने पर मजबूर करती है. अफ़सोस की बात है कि जिन दलित लोगों की हैसियत में सुधार आया है वो भी दान-धर्म के उन्हीं कर्मकांडों में फंसे हैं जिसकी वजह से उन्हें अछूत माना जाता रहा
ओमप्रकाश वाल्मीकि, दलित चिंतक
बताते हैं कि क़रीब 600 साल पहले भक्तिकाल के संत रविदास गंगा स्नान करने हरिद्वार आए थे.
संत रविदास जाति व्यवस्था के विरोधी थे और उन्होंने छुआछूत को चुनौती दी थी इसलिए जब उन्होंने हरिद्वार में दान-दक्षिणा करना चाहा तो सभी पंडितों ने मना कर दिया.
उस समय एक पुरोहित पंडित गंगाराम ने संत रविदास के साथ खड़े होने का साहस दिखाया और आगे आए. उन्होंने कहा कि मैं संत रविदास का दान लूंगा और कर्मकांड कराऊंगा.
उनके इस फैसले से पुरोहित समाज में हड़कंप मच गया और सबने पंडित गंगाराम को समझाने की कोशिश की कि ये शास्त्रों के विरूद्ध है लेकिन पंडित गंगाराम अपने फैसले पर अडिग रहे. उन्होंने संत रविदास का धार्मिक संस्कार करवाया और उनसे दान भी लिया.
मगर इस घटना के बाद पंडों की पंचायत ने पुरोहित समाज से उन्हें बाहर कर दिया और उनसे सवर्ण जातियों का संस्कार कराने का अधिकार भी छीन लिया गया.
पुनर्जीवित परंपरा
इसके बाद पंडित गंगाराम अलग-थलग पड़ गए लेकिन आज की पीढ़ी के उनके वंशज पंडित गोपाल ने न केवल इस परंपरा को पुनर्जीवित किया बल्कि इसे अपने परिवार की ख़ासियत बना लिया.
आज इस परिवार के लोग सिर्फ दलितों के पंडा हैं.
पंडित गंगाराम की पीढ़ी केवल दलितों के संस्कार के लिए वचनबद्ध है
उनके साथ उनके ही परिवार के कुछ और युवक भी दलितों के लिए पुरोहिताई कर रहे हैं और खूब आगे बढ़ रहे हैं और इसी वजह से काफी संपन्न भी बन गए हैं.
इस परिवार के बहीखाते को देखने से पता चलता है कि इनकी स्थिति कितनी मज़बूत है. कई केंद्रीय मंत्रियों और प्रशासनिक अधिकारियों के नाम भी इस परिवार की बही में दर्ज हैं.
बाबू जगजीवन राम, बूटा सिंह और सूरजभान जैसे कद्दावर लोग इनके यजमान रहे हैं.
पहले भले ही दलित हरिद्वार नहीं आते थे लेकिन अब वो भी बड़ी संख्या में यहां आते हैं, बड़े पैमाने पर कर्मकांड कराते हैं और खूब दान-दक्षिणा करते हैं.
परंपरा पर सवाल
पर सामाजिक समता के क़ानूनों वाले भारतीय समाज में अभी भी इस परिवार को हरिद्वार के पुरोहितों की प्रतिष्ठित गंगा-सभा में शामिल नहीं किया गया है.
गंगा सभा के पुरोहित रामकुमार मिश्र कहते हैं, "पहले छुआछूत का चलन था और इस तरह के संस्कार को शास्त्र सम्मत नहीं माना जाता था. दलित जाति के लोगों के लिए इस तरह के कर्मकांड और संस्कार की व्यवस्था ही नहीं थी."
पिछली कई पीढ़ियों से पुरोहितों की सभा से यह परिवार बाहर रहा है. हम परंपरा के अनुसार चल रहे हैं. इसी वजह से ये परिवार आज भी सभा से बाहर है
रामकुमार मिश्र, गंगा सभा के पुरोहित
पर क्या अनुसूचित जातियों के पुरोहित होने के कारण ही इस परिवार को सभा की सदस्यता से बाहर रखा गया है. यह पूछने पर रामकुमार मिश्र कहते हैं, "पिछली कई पीढ़ियों से पुरोहितों की सभा से यह परिवार बाहर रहा है. हम परंपरा के अनुसार चल रहे हैं. इसी वजह से ये परिवार आज भी सभा से बाहर है."
पर विशेषज्ञ इसे अलग तरीके से देखते हैं. समाजशास्त्री सुमन नांगिया कहती हैं कि समय बदल रहा है और आधुनिक व्यवस्थाओं से रूढ़ियां खुद ही टूट रही हैं. आरक्षण और सत्ता-राजनीति में दलितों की बढ़ी भागीदारी के बाद उनकी स्थिति और क्षमता में सुधार आया है और धर्म और कर्मकांडों के लिहाज से भी वो अब पीछे नहीं रहना चाहते हैं.
लेकिन दलित चिंतक और मशहूर साहित्यकार ओमप्रकाश वाल्मीकि इसे आलोचनात्मक दृष्टि से देखते हैं.
वो कहते हैं, "हमारी सामजिक व्यवस्था का सबसे बड़ा दोष यही है कि वो हर किसी को ब्राह्मण बनने और ब्राह्मणवादी वर्चस्व के सामने नतमस्तक होने पर मजबूर करती है. अफ़सोस की बात है कि जिन दलित लोगों की हैसियत में सुधार आया है वो भी दान-धर्म के उन्हीं कर्मकांडों में फंसे हैं जिसकी वजह से उन्हें अछूत माना जाता रहा."
बहरहाल, रूढ़ियों और उनपर उठते सवालों के बीच यह पुरोहित परिवार दलितों के पुरोहित भी भूमिका निभा रहा है. इसके पास एक ओर बिरादरी का बहिष्कार है तो दूसरी ओर जाति वर्ग विशेष के धनी, प्रभावशाली और मध्यम, ग़रीब लोगों की पुरोहिताई.
शालिनी जोशीदेहरादून से, बीबीसी हिंदी डॉट कॉम के लिए
Wednesday, March 25, 2009
'दलितों के पुरोहित'
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