Friday, December 15, 2017

भाजपा नेता शांत प्रकाश जाटव ने चमार रेजीमेंट की भारतीय सेना में पुन: बहाली की मांग दोहराई, चमार रेजीमेंट के सैनिकों को स्वतंत्रता सेनानी के दर्जे की मांग



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भाजपा नेता शांत प्रकाश जाटव ने चमार रेजीमेंट की भारतीय सेना में पुन: बहाली की मांग दोहराई, चमार रेजीमेंट के सैनिकों को स्वतंत्रता सेनानी के दर्जे की मांग

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 December 4, 2017 

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चमार रेजीमेंट के सैनिक चुन्नीलाल को पगड़ी बांधकर सम्मानित करते भाजपा नेता शांत प्रकाश जाटव

नई दिल्ली. 04 दिसंबर. अखिल भारतीय हिंदू जाटव महासभा के अध्यक्ष तथा भारतीय जनता पार्टी के नेता शांत प्रकाश जाटव ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखकर वीर चमार रेजीमेंट की भारतीय सेना में पुर्नस्थापना किये जाने तथा चमार रेजीमेंट के शहीद सैनिकों को स्वतंत्रता सेनानी का दर्जा दिये जाने की मांग दोहराई है.

प्रधानमंत्री के नाम लिखे पत्र की प्रतिलिपि

जाटव ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लिखे पत्र में लिखा है, कि चमार रेजीमेंट ने 1942 में अंग्रेजों के खिलाफ बगावत कर सुभाषचंद्र बोस के साथ आईएनए में शामिल होकर, अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध करते हुए उनके दांत खट्टे कर दिए थे. जिसके परिणामस्वरुप देश में विद्रोह की लहर उठी और अंग्रेजों को भारत छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा. उसी दौरान अंग्रेजों ने सुभाषचंद्र बोस को वॉर क्रिमिनल घोषित किया और चमार रेजीमेंट पर प्रतिबंध लगा दिया, जिसकी भारतीय सेना में पुन: बहाली हेतु वह मांग कर रहे हैं. विदित हो कि श्री जाटव ने इसी मुद्दे को लेकर बीते 17 अक्टूबर 2015 को महामहिम राष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री, केन्द्रीय गृहमंत्री, केन्द्रीय रक्षामन्त्री तथा अन्य विभागों को पत्र लिखे थे, जिसके बाद तत्कालीन केन्द्रीय रक्षामन्त्री मनोहर पर्रिकर ने उचित कार्यवाही का आश्वासन भी दिया था. इसी मामले को लेकर केन्द्रीय अनुसूचित जाति आयोग ने मार्च 2017 में रक्षा सचिव को तथा नवम्बर 2017 को अनुसूचित जाति आयोग, पंजाब सरकार ने भी केंद्र सरकार को पत्र लिखकर चमार रेजीमेंट को बहाल करने की मांग की है. यह भी पढ़ें : भाजपा नेता शांत प्रकाश जाटव का मायावती के बयान पर तीखा हमला, लगाए गंभीर आरोप  भाजपा नेता शांत प्रकाश जाटव ने प्रधानमंत्री को यह स्मरण पत्र लिखकर याद दिलाते हुए कहा है, कि आजादी की लड़ाई में चमार रेजीमेंट के अभूतपूर्व योगदान के इतिहास को ध्यान में रखते हुए आपसे आग्रह है, कि वीर चमार रेजीमेंट की भारतीय सेना में पुन: बहाली की जाये. साथ ही  चमार रेजीमेंट के ऐसे सैनिक जो अंग्रेजों से युद्ध के दौरान शहीद हुए या जिन्हें अंग्रेजों ने बागी घोषित कर 1943 में जेलों में यातनाएं दीं थीं, ऐसे सभी सैनिकों को राज्य सैनिक बोर्डों द्वारा सूचीबद्ध कराकर स्वतंत्रता सेनानी का दर्जा दिया जाये. 
इसके अलावा चमार रेजीमेंट के अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष के गौरवशाली इतिहास को सम्मान देने हेतु राजधानी दिल्ली सहित, सभी प्रदेशों की राजधानियों व सभी जिलों में शौर्य स्तम्भ स्थापित कराये जाने की भी मांग की है, ताकि समाज चमार जाति के गौरवशाली इतिहास को समझ सके. साथ ही श्री जाटव ने  चमार रेजीमेंट की वीरता की कथाएं पाठ्य पुस्तकों में शामिल किये जाने का भी अनुरोध किया है. श्री जाटव ने पत्र में लिखा है, कि चमार रेजीमेंट के इन वीर सैनिकों की वीरता और शहादत की कहानियां समाज को उनके पूर्वजों शौर्यगाथा से अवगत करायेंगी और मौजूदा पीढ़ी को पता चलेगा कि उनके समाज का कैसा गौरवशाली इतिहास रहा है.

Saturday, November 16, 2013

Shant Prakash Jatav

Shant Prakash Jatav BJP Leader



Shant Prakash Jatav BJP Leader


Shant Prakash Jatav BJP Leader


Shant Prakash Jatav BJP Leader


Shant Prakash Jatav BJP Leader


Shant Prakash Jatav BJP Leader


Shant Prakash Jatav BJP Leader


Wednesday, August 14, 2013

Shant Prakash Jatav Dalit Leader in BJP

Karnataka National Office Bearers BJP SC Morcha Meeting at Bangalore 


Narayan Kaisari (MP), Anita Arya (Ex MP), Shant Prakash Jatav


Narayan Kaisari (MP), Anita Arya (Ex MP), Shant Prakash Jatav


Narayan Kaisari (MP), Anita Arya (Ex MP), Shant Prakash Jatav


Shant Prakash Jatav


Shant Prakash Jatav


Shant Prakash Jatav


Shant Prakash Jatav 




Shant Prakash Jatav


Shant Prakash Jatav



Shant Prakash Jatav



Shant Prakash Jatav



Shant Prakash Jatav



Shant Prakash Jatav

Thursday, August 19, 2010

अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों के कल्याण सेक्टर के अन्तर्गत अनुसूचित जातियों/विमुक्त जातियों के कल्याण हेतु विभिन्न कल्याणकारी योजनायें

छात्र-छात्राओं की छात्रवृत्ति योजना, अनुसूचित जातियों/जनजतियों के लिये बुक बैंक योजना, शुल्क प्रतिपूर्ति योजना, अनावर्ती सहायता योजना, प्राविधिक शिक्षा संबंधी सुविधायें, केन्द्रीय पुरोनिधानित योजना के अन्तर्गत अस्वच्छ पेंशा में लगे व्यक्तियों के विशेष छात्रवृत्ति योजना समाज कल्याण विभाग द्वारा अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों के कल्याण सेक्टर के अन्तर्गत अनुसूचित जातियों/विमुक्त जातियों के कल्याण हेतु विभिन्न कल्याणकारी योजनायें चलायी जा रही है जिन्हें मुख्यत: शैक्षिक, आर्थिक, सामाजिक एवं अन्य योजनाओं के अन्तर्गत वर्गीकृत किया गया है।
समाज कल्याण विभाग द्वारा संचालित योजनाओं में अनुसूचित जातियों/ जनजातियों एवं विमुक्त जातियों कीं छात्रवृत्ति योजना, सामान्य वर्ग के गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करने वाले, स्वैच्छिक संगठनों द्वारा शिक्षा संबंधी कार्य तथा उन्हें दी जाने वाली आर्थिक सहायता से संबंधित योजना, राजकीय उन्नयन बस्तियों के रख-रखाव से संबंधित योजना, अनुसूचित जाति अत्याचार निवारण अधिनियम-१९८९ के क्रियान्वयन से संबंधित योजना, आश्रम पद्धति विद्यालयों एवं छात्रावासों का संचालन, अनुसूचित जाति के व्यक्तियों को शादी/बीमारी अनुदान दिये जाने की योजना सम्मिलित है। इसके अतिरिक्त स्पेशल कम्पोनेंट प्लान के अन्तर्गत अनुसूचित जाति वित्त एवं विकास निगम द्वारा स्वत: रोजगार योजना, सेनिटरी मार्ट योजना, दुकान निर्माण योजना, कौशल वृद्ध प्रशिक्षण की योजना तथा निशुल्क बोरिंग की योजना संचालित की जा रही है।

समाज कल्याण विभाग के द्वारा मंत्री विवेकाधीन कोष से अनुदान स्वीकृत किया जाता है। इसके अन्तर्गत रू० ३५,०००.०० की व्यवस्था की गयी है। इसके अतिरिक्त अशक्त एवं वृद्ध गृहों, राजकीय भिक्षुक गृहों का संचालन, राजकीय भिक्षुग गृहों का संचालन किया जा रहा है तथा अनुसूचित जातियों के कल्याणार्थ कार्य करने वाले विभिन्न स्वैच्छिक संगठनों को आर्थिक सहायता प्रदान की जाती है।

राष्ट्रीय सामाजिक सहायता कार्यक्रम के अन्तर्गत राष्ट्रीय वृद्धावस्था पेंशन योजना, राष्ट्रीय पारिवारिक योजना के अन्तर्गत लाभार्थियों को कुछ सुविधायें अनुमन्य की गयी है।
समाज कल्याण विभाग के अन्तर्गत निम्न संगठन कार्य कर रहे है:-

१. समाज कल्याण निदेशालय, उ०प्र०, लखनऊ।
२. जनजाति विकास निदेशालय, उ०प्र०, लखनऊ।
३. मद्यनिषेध निदेशालय, उ०प्र०, लखनऊ।
४. उत्तर प्रदेश अनुसूचित जाति वित्त एवं विकास निगम (लि०) लखनऊ।
५. उत्तर प्रदेश समाज कल्याण निर्माण निगम (लि०) लखनऊ।
६. उत्तर प्रदेश अनुसूचित जाति/जनजाति शोध एवं प्र्रशिक्षण संस्थान, लखनऊ।
७. छत्रपति शाहू जी महाराज शोध एवं प्रशिक्षण संस्थान, उ०प्र०, लखनऊ।
८. उत्तर प्रदेश अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति आयोग, लखनऊ।

कब तक होता रहेगा दलितों पर अत्याचार

कब तक होता रहेगा दलितों पर अत्याचार!

ओ.पी. पाल
हरियाणा के हिसार जिले के मिर्चपुर कांड की आग अभी ठंडी भी नहीं हो पाई कि राज्य के पलवल जिले के भिदुकी गांव में पंचायती चुनाव के दौरान दबंगों की राजनीति का मुकाबला करने वाले दलितों के घरों में तोड़फोड और आगजनी के साथ मारपीट की भयावह घटना ने एक बार फिर दलित अत्याचार के मामलों सच सामने ला दिया है। कहीं न कहीं देश में दलितों के अत्याचार को रोकने में अनुसूचित जाति एवं जनजाति (अत्याचार निवारण) कानून भि बेअसर साबित होता नजर आ रहा है। विशेषज्ञों का मानना है कि आजादी के बाद भी सरकार दलितों को अत्याचारों से निजात नहीं दिला सकी है, जिसका सासे बड़ा कारण प्रशासनिक और पुलिस व्यवस्था में राजनीतिक हस्तक्षेप के रूप में सामने आया है। देश की सामाजिक व्यवस्था को दुरस्त करने के लिए आजादी के बाद से सत्ता में आए राजनीतिक दलों की सरकारों ने बड़े-बड़े वादे तो किये लेकिन उन्हें देश व समाज के सामाने प्रस्तुत करने का कभी प्रयास नहीं किया। अगर किया होता तो इस तरह की घटनाओं की पुनरावृति नहीं होती। मिर्चपुर और पलवल की घटनाओं ने कई वर्ष पहले हरियाणा के गोहाना कांड की यादों को ताजा कर दिया। विशेषज्ञ मानते हैं कि ग्रामीण इलाकों में आज भी दलितों को दबाने की राजनीति दांग करते आ रहे हैँ जिन्हें प्रशासनिक और पुलिस व्यवस्था में बढ़ते हस्तक्षेप का भी खुलेआम सहारा मिल रहा है। इंडियन जस्टिस पार्टी के प्रमुख एवं दलित नेता डा. उदित राज का कहना है कि हरियाणा में तो दलितों पर अत्याचार की घटनाएं कुछ ज्यादा ही बढ़ने लगी है, जिसका कारण खाप पंचायतों का वर्चस्व बढ़ना है। डा. उदित राज यह भी मान रहे हैं कि इन दलित अत्याचार की घटनाओं के बढ़ने का सासे बड़ा कारण यह भी है कि सत्तारूढ़ दल अधिकारियों की तैनाती में समरसता कायम करने का कोई प्रयास नहीं करते। डा. उदित राज का कहना है कि जिस क्षेत्र में भी ऐसी घटनाएं हुई हैं तो देखने में आया है कि वहां दलित विरोधी अधिकारी तैनात पाए गये हैं, वहीं ऐसे अधिकारी अपने उच्चाधिकारियों और सरकार को भी गलत सूचनाएं देकर दबंगों के हौंसले को बढ़ाने में मदद करने में भी पीछे नहीं हटते और आरोपियों को केवल बचाने का धर्म निभाने का प्रयास करते हैं। चाहे गोहाना कांड रहा हो या पिछले अप्रैल में मिर्चपुर अग्निकांड अथवा ताजा पलवल के भिदुकी गांव की घटना ही क्यों न हो, पुलिस अधिकारी मामलें को दबाने का प्रयास ही करते नजर आए हैं। उन्होंने दलितों के वोट राजनीति करने वाले राजनीति दलों को भी ऐसी घटनाओं के लिए जिम्मेदार करार दिया। वरिष्ठ अधिवक्ता एवं विधि विशेषज्ञ कमलेश जैन का कहना है कि अनुसूचित जाति एवं जनजाति (अत्याचार निवारण) कानून 1989 तथा नियमावली 1955 की प्रस्तावना यह भी कहती है कि अनुसूचित जाति एवं जनजाति को उच्च वर्गो के अत्याचारों से बचाने के लिए इस कानून का निर्माण किया गया है। ऐसे मामलों में ट्रायल और पीड़ित को राहत तथा पुनर्वास के लिए विशेष अदालतों का गठन करना भी शामिल है। विधि विशेषज्ञ कमलेश जैन की माने तो यह कानून ऐसा बनाया गया है कि दलितों की मुश्किलें इससे आसान होने के बजाए कई गुना बढ़ती नजर आती हैं। दलित कानून के अंतर्गत दलितों की एक मुश्किल यह भी है कि उन्हें अपनी जाति में कुशल वकील नहीं मिल पाते, ऐसे में तकनीक कानूनी पेंच उलझे होने के कारण दलितों को न्याय नहीं मिल पाता। राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग के अध्यक्ष बूटा सिंह का कहना है कि दलित अत्याचार के मामले आयोग में आने पर आयोग ऐसे मामलों की जांच परख करने के बाद सरकार से उसमें उचित कार्रवाई करने को कहना है। दलित अत्याचार के हरियाणा में हुए हाल ही में हुए मिर्चपुर और भिदुकी गांव की ही घटना नहीं हैं ऐसे मामलों की लम्बी फेहरिस्त है, जिनमें प्रशासनिक और पुलिस अधिकारियों के स्तर पर ठोस कार्रवाई नहीं की जाती। बूटा सिंह के अनुसार दलित अत्याचार में यूपी सबसे पहले और बिहार दूसरे तथा मध्य प्रदेश तीसरे स्थान पर है, लेकिन दलित अत्याचार में हरियाणा, पंजाब, गुजरात व तमिलनाडु जैसे राज्य पीछे नहीं है। विशेषज्ञो का सवाल है कि देश में दलितों के अत्याचार की घटनाएं का तक होती रहेंगी, इसके लिए केंद्र सरकार को कानून और व्यवस्था को सख्त करने की जरूरत है.
मिर्चपुर कांड पर हुड्डा दामन बचाने में कामयाब
हरियाणा के मिर्चपुर कांड में राज्य के मुख्यमंत्री भूपेन्द्र सिंह हुड्डा अपनी सरकार और कांग्रेस की प्रतिष्ठा को कायम रखने में सफल होते नजर आ रहे हैं। इसका कारण है कि मिर्चपुर कांड के पीड़ित दलित परिवार मंगलवार को सरकार के आश्वासन पर नई दिल्ली से वापस मिर्चपुर रवाना हो गये हैं, वहीं जिस हुड्डा सरकार और कांग्रेस पार्टी के विरोध में ये परिवार नई दिल्ली में डेरा ड़ाले हुए थे वहीं वापस मिर्चपुर जाने से पहले कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी, महासचिव राहुल गांधी और मुख्यमंत्री भूपेन्द्र सिंह हुड्डा के कसीदे पढ़ते नजर आए।हरियाणा के हिसार जिले में मिर्चपुर में गत 24 अप्रैल को मामूली विवाद पर दांगों द्वारा दलितों के घरों को आग लगाए जाने से पिता-पुत्री की मौत के कारण घटना ने इतना तूल पकड़ा कि प्रशासन और पुलिस महकमा भी दबंगों के सामने बेबस नजर आने लगा था। ऐसे में पीड़ित परिवारों का पलायन होना कोई नई बात नहीं थी, जो भय के कारण नई दिल्ली स्थित मंदिर मार्ग पर आकर डेरा डाल चुके थे। मिर्चपुर कांड में जहां हरियाणा उच्च न्यायालय ने हरियाणा सरकार को नोटिस जारी किया था तो वहीं सुप्रीम कोर्ट ने भी फटकार लगाई थी। अदालत के आदेश पर जा पिछले सप्ताह हिसार के डीसी दलित परिवारों को मनाने के लिए मंदिर मार्ग आए तो उन्हें दलितों ने धकिया ही नहीं, बल्कि उनके साथ हाथापाई तक की नौबत सामने आई। इस मामले पर कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी ने मुख्यमंत्री भूपेन्द्र सिंह हुड्डा को बुलाकर उन्हें दलितों को सुरक्षा और उनके नष्ट हुए मकानो के बदले पुनर्वास की उसी गांव में व्यवस्था करने की हिदायत दी थी। हरियाणा सरकार ने गांव में दलितों के घर बनाने का काम भी शुरू कर दिया और गांव में अमन-चैन भाई चारे के लिए भी माहौल बनाने की कवायद की गई। इससे पहले घटना के बाद कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी और केंद्रीय शहरी आवास एवं गरीबी उपशमन मंत्री कुमारी सैलजा भी मिर्चपुर पहुंची थी। जाकि राज्य सरकार को कोई प्रतिनिधि उस दौरान घटना का जाएजा लेने तक नहीं पहुंच सका था तो मुख्यमंत्री भूपेन्द्र सिंह हुड्डा और उनकी सरकार पर स्वयं कांग्रेस पार्टी के जिम्मेदार लोग भी उंगली उठाते नजर आए। इन साके बावजूद मुख्यमंत्री भूपेन्द्र सिंह हुड्डा ने मिर्चपुर कांड के मामले में जिस प्रकार की कार्रवाई शुरू की उससे विरोधियों की राजनीतिक अरमान भी आंसुओं में बहते नजर आए। शायद यही कारण था कि आठ जून को पीड़ितों ने मिर्चपुर गांव वापस लौटने से पहले यहां पत्रकारों से वार्ता की और मृतक ताराचंद की पत्नी कमला और पुत्र रविन्द्र ने कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी, महासचिव राहुल गांधी तथा मुख्यमंत्री भूपेन्द्र सिंह हुड्डा की तारीफों में कसीदे पढ़े और कहा कि इनके कारण ही उन्हें फिर से गांव में भाईचारे के लिए वापस जाने का मौका मिल रहा है, जहां वायदे के अनुसार सरकार ने मकान बनाने का काम भी शुरू कर दिया है। उन्होंने एक केंद्रीय मंत्री पर दलितों को गुमराह करने का भी आरोप लगाया, जिन्होंने गांव से दिल्ली में डेरा डालने के लिए उकसाया था और फिर उनकी सुध भी नहीं ली। बहरहाल मिर्चपुर की घटना पर मुख्यमंत्री अपना और राज्य सरकार का दामन बचाने में सफल होते नजर आए हैं।

Friday, July 3, 2009

मुख्‍यमंत्री ने किया राजकोष का दुरुपयोग


मुख्‍यमंत्री ने किया राजकोष का दुरुपयोग
राजधानी लखनऊ में और नोयडा में बसपा सुप्रीमो मायावती द्वारा करीब 2700 करोड़ रुपए से स्थापित विभिन्न स्मारकों और मूर्तियों की स्थापना के सवाल पर अब राज्य सरकार सुप्रीम कोर्ट के घेरे में आ चुकी है।
मायावती जब भी सत्ता में आती हैं विकास कार्यों पर ध्यान देने के बजाय अम्बेडकर के नाम पर स्मारकों, कांशीराम के नाम पर स्मृति स्थलों और बहुजन समाज के नायकों- ज्योतिबा फुले, नारायण गुरू, शाहूजी महाराज, रमाबाई अम्बेडकर के नाम पर स्मारकों के विकास और इनसे संबंधित मूर्तियों की स्थापना में ज्यादा रुचि लेती हैं।हद तो तब हो गई जब मायावती ने बहुजन नायकों की मूर्तियाँ स्थापित करने के साथ ही खुद अपनी आधा दर्जन मूर्तियों को स्थापित करा दिया और प्रस्तावित 3 जुलाई की जगह आनन-फानन में 25 जून को खुद ही इन सभी का अनावरण भी कर दिया।


दरअसल मायावती का स्मारक और मूर्ति-प्रेम उनके दलित वोट बैंक राजनीति का एक रणनीतिक हिस्सा है और शुरू से ही इस पर सवाल उठते रहे हैं।सुप्रीम कोर्ट ने गत 29 जून को वकील रविकांत और सुकुमार की जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए न्यायमूर्ति दलबीर भंडारी और अशोक कुमार गांगुली ने की खंडपीठ ने राज्य सरकार से पूरे मामले पर चार सप्ताह के भीतर जवाब दाखिल करने को कहा है।


उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती का दलित प्रेम और मूर्तियों से प्यार अब उनके गले की फाँस बनता जा रहा है। याचिकाकर्ताओं ने मामले की सीबीआई से जाँच कराने तथा सार्वजनिक धन की भरपाई की जाने की माँग की है।


राजकोष का दुरुपयोग :


मायावती की दलित-शाहखर्ची तब और उजागर हो गई जब अपने पहले कार्यकाल में बनाए गए अम्बेडकर उद्यान को पूरी तरह ध्वस्त करा दिया और करोड़ों रुपए खर्च कर उसे फिर से बनवाया।


इसको लेकर के मीडिया और विपक्षी दलों में चर्चा होना स्वभाविक था। सभी विपक्षी दलों ने इसको दलित वोट बैंक के लिए राजकोष का दुरुपयोग बताया।


भीमराव अम्बेडकर सामाजिक परिवर्तन स्थल को 23 एकड़ में बनवाया गया था। इसका निर्माण मायावती के प्रथम मुख्यमंत्रित्व काल में शुरू हुआ था। शुरुआत में 10 करोड़ की लागत की प्रस्तावित यह योजना 2002 में पूरी हुई तब इसकी लागत 150 करोड़ रुपए थी।


मई 2007 में चौथी बार सत्ता में आने के बाद मुख्यमंत्री मायावती के आदेश पर इसको पूरी तरह तोड़ दिया गया।आसपास की जमीनों का अधिग्रहण कर लिया गया और बाद में इसका विकास 123 एकड़ में किया गया। अब इसका निर्माण कार्य पूरा हो गया हैं। इसकी गैलरी में दलित महापुरुषों की 6 मूर्तियाँ स्थापित की गईं और इसको जोड़ने वाले बंधा रोड पर मायावती समेत 12 महापुरुषों की मूर्तियाँ स्थापित की गईं। इसकी कुल कीमत अब 2000 करोड़ रुपए हो गई।


कांशीराम स्मारक स्थल का निर्माण 42 एकड़ पर करवाया गया है। जेल रोड स्थित इस स्मारक की लागत 370 करोड़ रुपए है। मायावती को अब यह छोटा लगने लगा है इसलिए पास स्थित तीन जेलों- महिला जेल, आदर्श करागार और जिला जेल को तोड़ने का आदेश दे दिया गया है। तीनों जेलें 80 एकड़ में विस्तारित हैं।योजना के मुताबिक इस स्मारक को विस्तार देते हुए पास की इस 80 एकड़ जमीन पर बनाया जाए। यहाँ की तीनों जेलों के कैदियों को शहर से 35 किलोमीटर दूर मोहनलालगंज की नवनिर्मित जेल में भेज दिया जाए, लेकिन इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ खंडपीठ ने इस पर रोक लगा दी है।कांशीराम बहुजन नायक पार्क 4800 वर्गमीटर में विस्तारित है। इसमें कांशीराम और मायावती की मूर्तियाँ स्थापित की गई हैं। इसकी कुल लागत 4 करोड़ रुपए है।रमाबाई अम्बेडकर रैली स्थल बिजनौर रोड पर 51 एकड़ में फैला हुआ है। इसको भी विस्तार देने की योजना है। आसपास के रिहायशी इलाकों को अधिग्रहीत करने की कार्यवाही शुरू कर दी गई है, लेकिन यह मामला भी स्थानीय निवासियों द्वारा हाईकोर्ट में ले जाया गया है। हाईकोर्ट ने फिलहाल अग्रिम कार्यवाही पर रोक लगा दी है। इसमें रमाबाई अम्बेडकर और डॉ। भीमराव अम्बेडकर की मूर्तियाँ स्थापित की गई हैं और इसकी कुल कीमत 65 करोड़ बताई गई है।


उत्तर प्रदेश में 'हाथियों' की माया

मुख्‍यमंत्री ने किया राजकोष का दुरुपयोग

कांशीराम सांस्कृतिक स्थल 80 एकड़ में फैला हुआ है और इसकी जमीन को स्मृति उपवन से लिया गया है। स्मृति उपवन में कारगिल के शहीदों की याद सँजोई गई है। कारगिल शहीदों के लिए आरक्षित जमीन से 80 करोड़ की कटौती का मामला भी हाईकोर्ट में जा चुका है। फिलहाल कांशीराम सांस्कृतिक स्थल पर खर्च के लिए 90 करोड़ रुपए आवंटित किए हैं। यहाँ पर भी कांशीराम और मायावती की मूर्तियाँ स्थापित की गई हैं।

डॉ। भीमराव अम्बेडकर सामाजिक परिवर्तन प्रतीक स्थल गोमती नदी के किनारे 2 एकड़ में बनाया गया है। यहाँ कांशीराम और मायावती की मूर्तियों को स्थापित किया गया है। इसकी कुल कीमत सात करोड़ बताई गई है, जबकि 12 करोड़ की लागत से कांशीराम यादगार विश्राम स्थल एक गेस्टहाउस के रूप में विकसित किया गया है।

बुद्ध स्थल आलमबाग स्थित वीआईपी रोड़ के पास 6000 वर्गमीटर में स्थित है। इसी स्थल में पत्थर के 100 स्तम्भ लगाए गए हैं जिनका सिर हाथी का है। इसकी कुल कीमत 90 करोड़ रुपए बताई गई है।

ईको पार्क 50 करोड़ की लागत से बनाया गया है।समतामूलक चौराहा और अम्बेडकर चौराहा के अन्तर्गत दो बड़े चौराहे और दो बड़ी क्रॉसिंग बनाई गई हैं और तीन दलित महापुरुषों की मुर्तियाँ स्थापित की गई हैं। इनकी लागत का पता फिलहाल नहीं चल सका है।

बुद्ध शांति उपवन कानपुर रोड पर 18 एकड़ में फैला हुआ पार्क है। इसमें संगमरमर की भगवान बुद्ध की प्रतिमा स्थापित की गई हैं।

इनके अलावा प्रेरणास्थल का निर्माण हुआ है, जहाँ मायावती, कांशीराम और अम्बेडकर की मूर्तियाँ स्थापित की गई हैं। इन दोनों निर्माण कार्यों की लागत भी नहीं पता चल पाई है।

नोयडा के सेक्टर 15-ए के सामने स्थित पार्क में बड़े पैमाने पर चल रहे निर्माण कार्य पर सरकार ने चुप्पी साध रखी है।

फिलहाल उपरोक्त सभी निर्माण कार्यों की कुल लागत 1515 करोड़ बताई गई है। यानी इन सबके निर्माण पर 15 अरब रुपए से ज्यादा खर्च किए जाने की सूचना है।


अब तक जो जानकारी मिल पाई है, उससे पता चलता है कि मुख्यमंत्री मायावती के प्रथम मुख्यमंत्रित्व काल से लेकर इस कार्यकाल तक (चौथा मुख्यमंत्रित्व काल) इस तरह के निर्माण कार्यों पर 2700 करोड़ रुपए खर्च किए जा चुके हैं।

अब तक 46 मूर्तियों की स्थापना की जा चुकी है जिनमें सात मूर्तियाँ केवल मुख्यमंत्री मायावती की हैं। सभी स्मारकों में साढ़े पाँच लाख मीट्रिक टन लाल पत्थरों का इस्तेमाल किया गया है। यह भी पता चला है कि प्रति वर्गमीटर निर्माण लागत करीब पाँच लाख रुपए है।

उल्लेखनीय है कि राज्य सरकार ने पूरे राज्य में प्राइमरी और जूनियर हाईस्कूलों की बिल्डिंग निर्माण के लिए केवल 72 करोड़ रुपए आवंटित किए हैं। इंटरमीडिएट स्कूलों की इमारतों के निर्माण के लिए 35 करोड़ रुपए आवंटित किए। राज्य के जनस्वास्थ्य की रीढ़ प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र (पीएचसी) के लिए 85 करोड़ रुपए आवंटित किए हैं।

हालाँकि राज्य सरकार के वकील और बसपा के महासचिव सतीश चन्द्र मिश्र ने अदालत को यह बताने की कोशिश की कि स्मारकों का निर्माण जनहित का कार्य है और याचिका राजनीतिक पूर्वाग्रह से प्रेरित है। उनका कहना है कि कांग्रेस सरकार ने पाँच हजार करोड़ रुपए की मालकियत की तीन मूर्ति भवन पंडित नेहरू के लिए तथा राजघाट की छह हजार एकड़ जमीन नेहरू-गाँधी परिवार के लिए हमेशा के लिए सुरक्षित कर लिया है। क्या इसकी कीमत कांग्रेस को नहीं दिखाई देती?

भाजपा प्रवक्ता हृदय नारायण दीक्षित और लखनऊ के सांसद लालजी टंडन ने मायावती के इस कदम को आयकर दाताओं के पैसे को वोट बैंक के लिए इस्तेमाल करने का आरोप लगाते हुए कहा कि यह आम जनता का अपमान है।

उधर प्रमुख विपक्षी दल सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायमसिंह ने सत्ता में आने पर इन स्मारकों और मूर्तियों को ढहाए जाने के लिए बुल्डोजर चलवाने की घोषणा कर डाली है।

छोटी जाति पर सिनेमा में पक्षपात


सिनेमा में अंबेडकर

अम्बेडकर पर एक फिल्म ‘भीम गर्जना’ नाम से बनी है जबकि दूसरी फिल्म अम्बेडकर शीर्षक से मराठी फिल्मकार जब्बार पटेल द्वारा बनायी गयी है। जब्बार पटेल मराठी सिनेमा के सशक्त हस्ताक्षर हैं और उनके द्वारा बनायी जाने वाली किसी फिल्म से यह अपेक्षा नहीं थी कि उसमें तथ्यात्मक गड़बड़ियॉ होंगी लेकिन एनएफडीसी, सामाजिक एवं सहकारिता मंत्रालय, भारत सरकार और महाराट सरकार के सहयोग से बनी यह फिल्म देखकर कई स्थानों पर यह बात समझ में आयी कि फिल्म में तथ्यात्मक गड़बड़ियॉ सचेत या अचेत तौर पर की गयीं हैं। जब्बार पटेल भी महाराष्ट्र के हैं और अम्बेडकर भी। अम्बेडकरवादी आन्दोलन महाराष्ट्र में बहुत ताकतवर भी हैं ऐसे में मराठी लोग जितना अम्बेडकर के जीवन और उनके संघर्ष से वाकिफ हैं उतना भारत में और कोई नहीं। फिर भी कई स्थानों पर फिल्म में गड़बड़ियॉ हुई हैं। इस पर मैं विस्तार से चर्चा करना चाहूंगा।

कुछ और फिल्मों में दलित प्रश्न

फिलहाल मैं अभी सिनेमा में दलित प्रश्न को ही आगे बढ़ाते हुए कुछ ऐसी फिल्मों की चर्चा करना चाहूंगा जिनका जिक्र मैंने पहले नहीं किया है। ऐसी फिल्मों में सावन कुमार की फिल्म ‘सौतन’ का जिक्र किया जा सकता है। जिसमें फिल्म की नायिका पद्मिनी कोल्हापुरी को दलित दिखाया गया है। उसके पिता की भूमिका में श्रीराम लागू ने दलित की पीड़ा को साक्त अभिव्यक्त दी है। ‘1942 ए लव स्टोरी’ में भी मसक से पानी छिड़कता पात्र दलित है तथा गुलजार की ‘हू-तू-तू’ में नाना पाटेकर को लोक कवि और महार यानि भंगी जाति का दिखाया गया है।

गौतम घोष की फिल्म ‘पाथ’, प्रकाश झा की फिल्म ‘दामुल’ और यूआर अनन्तमूर्ति की कहानी घटश्राद्ध पर ‘दीक्षा’ नाम से बनी फिल्म, बंगाली से हिन्दी में अनुदित फिल्म ‘अर्न्तजलीय यात्रा’ तथा प्रेमचन्द की कहानी ‘गोदान’, ‘कफन’, ‘दो बैलों की आत्मकथा’, ‘सदगति’ और ‘गबन’ पर बनी फिल्मों ने दलित प्रश्न को यथासंभव इन कृतियों की अनुरूप प्रस्तुत किया गया है।

जातिगत दृष्टिकोण और अन्याय का प्रतिकार करने वाली अभी तक की सबसे साक्त फिल्म ‘बैंडीट क्वीन’ ही दिखायी देती है जो साधारण दलित स्त्री से दस्यु सुन्दरी और फिर सांसद बनी फूलन देवी के जीवन पर आधारित थी।

हाशिए पर ही दलित

मुझे इसके अतिरिक्त कोई उल्लेखनीय फिल्म नहीं दिखायी दी, हो सकता है कुछ और ऐसी फिल्में हों जिनमें दलित प्रश्न को ठीक से छुआ गया हो। इस पूरे सर्वेक्षण से मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचना हूं कि सिनेमा में दलित उसी तरह हाशिए पर हैं जैसे साहित्य व इतिहास में।

1960 में दलित साहित्य का प्रारम्भ हुआ तबसे लेकर अब तक कई दलित साहित्यकार सामने आये हैं जिनकी कृतियॉ चर्चा के केन्द्र में रही हैं किन्तु सिनेमा में जिसे साहित्य का विस्तार कहा जाता है इस तरह का आन्दोलन दिखायी नहीं देता ना ही कोई उल्लेखनीय फिल्मकार उभर का सामने आया है।दलित भी बनेगा निर्णायकसिनेमा की एक खास बात यह है कि सिनेमा मास मीडिया और मास मनोरंजन है। उसका ‘मास’ होना उसकी प्रकृति में वह एक साथ समाज के विविध लोगों बच्चे, बूढ़े, धनी, गरीब, औरत, मर्द, हिन्दू, मुसलमान, ब्राह्मण और शूद्र सबको उपलब्ध होता है।

सिनेमा हाल के अंधेरे में व्यक्ति अनाम हो जाता है- वह 'मास' हो जाता है और तय करता है कि फिल्म सफल होगी या असफल।इसलिए यह कला उ़द्योग मास को कितना ही मैनुप्लेट करे मास की निर्णायकता पूरी तरह कभी समाप्त नहीं हो सकती। जैसे साहित्य में पाठक निर्णायक होता है वैसे ही या उससे भी अधिक सिनेमा में दर्शक ‘बाक्स आफिस’ निर्णायक होता है। पाठकों की तरह दर्शकों को भी भटकाया, बरगलाया जाता है। कुल मिलाकर सिनेमा को दर्शक ही बना सकता है और वही बिगाड़ भी सकता है। दलित भारतीय समाज का बहुसंख्यक हिस्सा है इसलिए वही बाक्स आफिस का निर्णायक देर-सबेर बनेगा और तब दलित प्रश्न को सिनेमा में भी टाला नहीं जा सकेगा।

[चंद्रभूषण 'अंकुर' जाने-माने फिल्म आलोचक हैं और सिनेमा तथा इसके सामाजिक प्रभावों के बारे में लेख व टिप्पणियों के लिए जाने जाते हैं।]

Sunday, June 21, 2009

दलित देवताओं की पांत की नई दावेदार

शुरू-शुरू में जब भी किसी शहर में मैंने भारतीय संविधान के निर्माता डॉ. भीमराव अम्बेडकर की सूट-बूट और टाई वाली प्रतिमा या तस्वीर देखी, मेरे मन में यह सवाल आया कि भारत जैसे देश में हमारा कोई महान नेता कैसे इस तरह की वेशभूषा में राजनीति करता होगा। एक तरफ महात्मा गांधी, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, सरदार वल्लभ भाई पटेल, भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद जैसे नेताओं की टिपिकल मूर्तियों को देखकर मुझ सवर्ण हिंदू में गर्व पैदा होता था, तो दूसरी तरफ बाबा साहब आम्बेडकर की मूर्तियां देखकर मन में प्रश्न पैदा होता था।

काफी बाद में जब दलित चिंतक चंद्रभान प्रसाद का एक लेख मैंने पढ़ा तब समझ में आया कि ये मूर्तियां देश के दलितों में स्वाभिमान और आत्मविश्वास का भाव पैदा करती हैं। यह कि, एक दलित का प्रतिभाशाली पुत्र अगर किसी सवर्ण की तरह सम्मान और प्रतिष्ठा अर्जित कर सकता है तो सदियों से वर्ण व्यवस्था का अभिशाप झेल रहे तमाम दलितों के लिए भी यह मुमकिन होना चाहिए। कि गांव और नगरों के बिल्कुल सिरों पर अपनी अलग बस्तियों में आधे-अधूरे आदमी की नारकीय जिंदगी जीने वाले दलितों के लिए हमारे समाज में बराबरी का दर्जा क्यों नहीं है।

डॉ। आम्बेडकर आज दलित अस्मिता के पूजनीय प्रतीक हैं लेकिन क्या यूपी की मुख्यमंत्री मायावती के बारे में भी यह बात निर्विवाद तौर पर कही जा सकती है, जिन्हें अपने जीवनकाल में ही अपनी मूर्तियां लगवाने के लोभ में किसी भी तरह की कोई मर्यादा का ख्याल नहीं है।

सुप्रीम कोर्ट में दो वकीलों ने यूपी सरकार का हवाला देते हुए एक याचिका दायर की है कि मायावती की आठ मूर्तियां लखनऊ में लगवाने के लिए 3 करोड़ 49 लाख रुपये खर्च किए गए हैं। मायावती को राजनीति में लाने वाले मान्यवर कांशीराम की 7 मूर्तियों पर पहले ही 3 करोड़ 37 लाख रुपये खर्च किए जा चुके हैं जबकि उनकी बीएसपी के चुनाव चिह्न 'हाथी' के 60 स्टैच्यू बनवाने पर 52 करोड़ 20 लाख रुपये खर्च किए जा रहे हैं। एक स्टैच्यू की कीमत 87 लाख रुपये आएगी जबकि एक जिंदा हाथी कहावत की भाषा में सवा लाख रुपये का भी शायद ही मिले।

रविकांत और सुकुमार नामक इन दोनों वकीलों ने सुप्रीम कोर्ट से अपील की है कि एक तो करोड़ों रुपये के इस मूर्ति घोटाले की सीबीआई से जांच कराई जाए और दूसरा यह देखा जाए कि किस तरह मायावती अपने चुनाव चिह्न को गौरवान्वित करने के लिए करदाताओं के पैसे का दुरुपयोग कर रही हैं।

आर.टी.आई. (सूचना का अधिकार)के तहत जानकारी दी गई है कि लखनऊ में भीमराव आम्बेडकर सामाजिक परिवर्तन स्थल में मायावती और कांशीराम की 24 फीट ऊंची दो विशाल मूर्तियां लगाई गई हैं और हर मूर्ति की कीमत 1 करोड़ 55 लाख रुपये चुकाई गई है।

मायावती और कांशीराम नि:संदेह दलित जातियों में गर्व का भाव पैदा करते हैं और इन्होंने विशुद्ध अपने दम पर डॉ. आम्बेडकर के स्वप्न को भी साकार किया है, लेकिन यूपी जैसे गरीब प्रदेश में एक दलित मुख्यमंत्री की भूमिका दलित उत्थान की होनी चाहिए या सिर्फ इस तरह की प्रतीकात्मकता की? हाल ही में देश में छुआछूत के बारे में हुए एक राष्ट्रीय सर्वे (सुखदेव थोराट, घनश्याम शाह, सतीश देशपाण्डे, हर्ष मंदर और अमिता बाविस्कर) के अनुसार आज भी 38 फीसदी सरकारी स्कूलों में दलितों के बच्चों को खाने के वक्त सवर्णों से अलग बैठाया जाता है। देश के 11 बड़े राज्यों के 565 गांवों में किए गए इस सर्वे में बताया गया है कि इनमें से करीब-करीब आधे गांवों में दलितों को नदी, तालाब, कुएं और सरकारी नल तक नहीं पहुंचने दिया जाता, जिसे पढ़कर उपन्यास सम्राट प्रेमचंद की प्रसिद्ध कहानी 'ठाकुर का कुंआ' की याद ताजा हो जाती है।

आजादी के 60 साल बाद भी आज यह रोंगटे खड़े करने वाली स्थिति है। आज भी इनमें से करीब एक तिहाई गांवों में दलित लोग दुकानों में नहीं घुस सकते, जबकि करीब आधे गांवों में दलितों के सड़कों पर बरात निकालने पर रोक है। सर्वे में पाया गया कि अगर दलितों ने साफ-सुथरे फैशनेबल कपड़े पहने हैं या महंगे चश्मे लगाए हैं तो सवर्ण यह बर्दाश्त नहीं करते। दलितों के गुरुद्वारे और मंदिर भी अलग हैं और मरने के बाद भी उनका श्मशानों में प्रवेश वर्जित है।

इस पृष्ठभूमि में डॉ. बाबा साहब आम्बेडकर की मूर्तियों की जरूरत तार्किक है। लेकिन जिस देश में एक दलित राष्ट्रपति हो चुका हो, एक दलित उपप्रधानमंत्री रह चुका हो और एक दलित महिला लोकसभा के स्पीकर के पद पर बैठी हो, उसमें मायावती का मूर्तिकरण का यह प्रयास जनता के पैसे से अपनी राजनीति चमकाने के अलावा और क्या माना जाए?

भारत में रैदास जैसे अनेक दलित संत हो चुके हैं, जिनके पद भजन और अभंग दलितों और सवर्णों को समान रूप से आनन्दित करते हैं लेकिन वे भी बहन मायावती की मूर्तियों सा महत्व नहीं पा सके। लगानी ही है तो महात्मा ज्योतिराव फुले की मूर्तियां क्यों नहीं लगाई जानी चाहिए? यह ठीक है कि कांशीराम ने जब यह देखा कि यूपी में उन्हीं के सहयोग से बनी मुलायम सिंह यादव की सरकार के बावजूद यादव और अन्य पिछड़ी जातियों के दलितों पर हमले बढ़ रहे हैं तो जहां उन्होंने अपना कड़ा प्रतिरोध दर्ज कराया, वहीं दलितों में एक राजनैतिक चेतना जाग्रत करने के लिए गांवों और कस्बों में आम्बेडकर की मूर्तियां लगवाने की मुहिम शुरु की। मार्च 1994 में जब मेरठ में एक पब्लिक पार्क में लगी आम्बेडकर की मूर्ति हटा दी गई तो दलितों ने एक आंदोलन सा खड़ा कर दिया। कोई चार महीनों के अंदर आम्बेडर की मूर्तियां लगाने को लेकर 64 हिंसक घटनाएं हुईं जिनमें 21 दलित मारे गए। बीएसपी-एसपी गठबंधन के टूटने के पीछे यह भी एक कारण है कि यादव और दलितों के बीच जातिगत भेद राजनैतिक समीकरणों पर भारी पड़े। मुलायम सिंह यादव ने इस मूतिर्करण का जवाब समाजवादी जननायकों के स्टैच्यु आदि लगाकर दिया।

जो भी हो इसमें कोई शक नहीं कि जब भगवान बुद्ध और महात्मा फुले के साथ जगह-जगह डॉ. आम्बेडकर की मूतिर्यां यूपी में लगाई गईं तो दलितों में आम्बेडकर का दर्जा एक महापुरुष ही नहीं बल्कि देवता का सा हो गया। इस मूर्तिपूजक देश में महापुरुष कालान्तर में देवता के पद पर प्रतिष्ठित हो जाते हैं। डॉ. आम्बेडकर ने यह पद अर्जित किया है जो अपनी बौद्धिकता और राजनैतिक दर्शन से एक स्तर पर गांधी को भी चुनौती देते हैं। कांशीराम का दलित चेतना जाग्रत करने में निश्चय ही महान योगदान है, जिन्होंने डॉ. आम्बेडकर की तरह यह समझा कि जब तक दलितों का सत्ता पर कब्जा नहीं होगा, उन्हें समाज में बराबरी का दर्जा नहीं मिलेगा। लेकिन वह कोई बुद्धिजीवी नहीं थे इसलिए शिक्षा और सामाजिक सुधारों के मसले पर वे ऐसा कोई कदम उठाते नहीं दिखाई देते जिससे दलितों में सचमुच किसी क्रान्ति का सूत्रपात होता। फिर भी उनके दिवंगत होने के बाद अगर जगह-जगह उनकी मूर्तियां लगाई जाती हैं तो तर्क समझ में आता है। यह भी एक दलित आईकॉन के देवताकरण का वाजिब प्रयत्न माना जा सकता है।

पर मायावती तो अपने जीते जी ही दलित देवताओं की इस पंक्ति में शामिल होना चाहती हैं। उन्होंने कभी कहा भी था कि क्यों दूसरी मूर्तियों पर चढ़ावा चढ़ाते फिरते हो, मैं जीती-जागती मूर्ति हूं, अपना चढ़ावा मुझे अर्पित करो। हो सकता है कि मायावती कुछ तबकों में पूजी भी जाती हों, लेकिन भारतीय सोच किसी जीवित व्यक्ति द्वारा खुद अपनी मूर्तियां लगाने को मंजूर नहीं करती। फिर मायावती तो जनता के पैसे से अपने साथ-साथ अपने चुनाव चिह्न हाथी की भी मूर्तियां लगवा रही हैं। इसलिए इसे रोका तो जाना ही चाहिए।

मधुसूदन आनंद


Sunday, May 10, 2009

वर्तमान दलित आंदोलन का स्वरूप

वर्तमान दलित आंदोलन का स्वरूप

उदित राज मानते हैं कि कई दलित राजनीतिक अपना निजी हित साधने में लगे हैं
आज के दौर में दलित आंदोलन की जो दिशा होनी चाहिए थी, वो तो नहीं है लेकिन आंदोलन चल रहा है. जितना दम-खम होना चाहिए था, जो उपलब्धियाँ होनी चाहिए थी, वो भी नहीं है.
डॉक्टर अंबेडकर की जो मुख्य लड़ाई थी वो वर्ण व्यवस्था के ख़िलाफ़ थी. वो चाहते थे कि इस देश में इंसान रहें, जातियाँ न रहें.
हम प्रयास कर रहे हैं कि अंबेडकर जी की बात को आगे लेकर चल रहे हैं, मायावती जी, पासवान जी और आरपीआई वाले भी अपने-अपने तरीके से दलित आंदोलन को आगे बढ़ा रहे हैं.
लेकिन अंबेडकर जी की जो मूल लड़ाई थी यो उनकी मुख्य विचारधारा थी, बाकी के लोग उसमें शामिल होने से कतराते हैं.
राजनीतिक लड़ाई ये लोग ज़रूर लड़ रहे हैं और यह ज़रूरी भी है लेकिन विधानसभा हो या संसद हो, ये लोग दलितों के हित में आवाज़ नहीं उठाते हैं.
उदाहरण के तौर पर बहुजन समाज पार्टी ने दलितों के हित के लिए सीधे तौर पर कोई आंदोलन नहीं किया. दलितों के उत्थान के लिए जो पैसा आवंटित होता है उसे दूसरे विभागों को खर्च करने के लिए दे दिया जाता है. इसपर कोई आंदोलन नहीं है. उत्तर प्रदेश में दलित बच्चों को छात्रवृत्ति नहीं मिल रही है, उसपर बसपा का कोई आंदोलन नहीं है.
निजीकरण, भूमंडलीकरण जैसे मुद्दों पर, निजी क्षेत्र में आरक्षण के सवाल पर दलित नेता बिखरे हुए हैं और कोई साथ नहीं आ रहा है, न सवाल खड़े कर रहा है

होना तो यह चाहिए कि विपक्ष में रहकर आप आंदोलन करें और सत्ता में आएं तो उन माँगों के लिए क़ानून बनाए पर इससे इतर बसपा ने वोट और नोट के लिए ही राजनीति की है.
निजीकरण, भूमंडलीकरण जैसे मुद्दों पर, निजी क्षेत्र में आरक्षण के सवाल पर दलित नेता बिखरे हुए हैं और कोई साथ नहीं आ रहा है, न सवाल खड़े कर रहा है.
वजहें
कुछ तो इस देश का परिवेश ही ऐसा है कि सभी जनांदोलन की स्थिति ऐसी है. केवल दलित आंदोलन ही नहीं, यहाँ के कम्युनिस्टों में भी वो धार नहीं है जो कि नेपाल या देश के और कम्युनिस्टों में है. किसानों का आंदोलन भी कमज़ोर है.
दरअसल, इस देश में जाति धर्म से भी ज़्यादा मज़बूत है. जाति ही आगे आकर खड़ी हो जाती है. जब भी इस देश में चुनाव होते हैं, सरकार को चुनने का समय आता है तो न विकास मुद्दा रहता है, न बिजली, न पानी, किसान की समस्या. जो किसान आज आत्महत्या कर रहा है, कल उसी परिवार के लोग मुद्दे की जगह जाति के आधार पर वोट देंगे. बस जाति ही निर्णायक हो गई है.
दूसरे हमारी सांस्कृतिक धरोहर भी कुछ ऐसी ही रही है. इस देश में सच्चाई कम और दोहरे चरित्र ज़्यादा कामयाब रहे हैं.
दरअसल, इस देश में जाति धर्म से भी ज़्यादा मज़बूत है. जाति ही आगे आकर खड़ी हो जाती है. जब भी इस देश में चुनाव होते हैं, सरकार को चुनने का समय आता है तो न विकास मुद्दा रहता है, न बिजली, न पानी, किसान की समस्या. जो किसान आज आत्महत्या कर रहा है, कल उसी परिवार के लोग मुद्दे की जगह जाति के आधार पर वोट देंगे

इसके अलावा लोगों की मानसिकता भी ज़िम्मेदार है. जिन हाथों ने काम किया, उनकी हमेशा उपेक्षा हुई और जो लोग बैठकर खाते रहे, पाखंड फैलाते रहे उनकी पूजा की जाती रही. काम के ज़रिए सम्मान कभी नहीं मिला.
मीडिया की भी बड़ी भूमिका है. सही आंदोलन को ग़लत दिशा में दिखाना और ग़ैर-ज़रूरी चीज़ों को मुख्य ख़बर बनाने का काम भारतीय मीडिया कर रहा है.
दलितों में भी आपस में काफी भेदभाव है, छुआ-छूत है. तो वजहें दोनों तरह की हैं. आंतरिक भी और बाहरी भी.
दलित आंदोलन: दक्षिण बनाम उत्तर
दक्षिण भारत में दलित आंदोलन और उत्तर भारत में दलित आंदोलन में हमें तो कोई फ़र्क नज़र नहीं आता बल्कि उत्तर की स्थिति मैं बेहतर पाता हूँ.
महाराष्ट्र में अंबेडकर जी का शुरू किया हुआ आंदोलन, आरपीआई आज कई हिस्सों में बँट गया है.
आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु के भी दलित आंदोलनों की स्थिति अच्छी नहीं है. मदुरै का उदाहरण लें तो वहाँ पंचायत चुनावों में दलित खड़े तो होते थे पर कुछ ही दिनों में उन्हें इस्तीफ़ा देना पड़ता था क्योंकि तथाकथित संभ्रांत वर्ग उन्हें कुछ करने ही नहीं देता था.
ऐसा कहना उचित होगा कि दोनों ही तरफ के आंदोलन अधूरे हैं.
हाँ, दक्षिण की स्थिति ठीक इसलिए दिखती है क्योंकि वहाँ पूरे तौर पर स्थिति उत्तर से बेहतर है. शिक्षा से लेकर आर्थिक स्थिति और क़ानून व्यवस्था भी उत्तर के मुकाबले बेहतर है. तकनीक विकास में भी वो आगे हैं.

आज का दलित: उपलब्धियाँ और भटकाव



आज का दलित: उपलब्धियाँ और भटकाव

रमणिका गुप्तासाहित्यकार और लेखिका


दलितों ने अपने अस्तित्व को पहचानना शुरू कर दिया है और उसमें आत्मसम्मान जागा है
आज के दलित की यात्रा भंगी, चूहड़े, चमार जैसी सैंकड़ों जातियों-उपजातियों से शुरू होकर गाँधी के ‘हरिजन’ से होते हुए अंबेडकर के ‘दलित’ तक पहुँची है.
एक याचक की तरह राहत माँगने वाला और दया का पात्र हरिजन मनुष्यता का अधिकार पाने के लिए संघर्षशील मनुष्य के रूप में उभरा है और यह संभव हुआ है अंबेडकर के दलित आंदोलन से, जिसकी वजह से सदियों से जड़ और गूंगे दलितों में कुछ एहसास जगा और उनकी बोली फूटी है.
आज दलितों का जाति-व्यवस्था पर विश्वास दरक चुका है. भले ही यह पूरी तरह ख़त्म नहीं हुआ हो.
भंगी से हरिजन और हरिजन से दलित तक की इस यात्रा में दलित की सबसे बड़ी उपलब्धियाँ हैं. मसलन, आत्मसम्मान यानी हीन भावना से मुक्ति पाना, अपनी पहचान बनाना, प्रतिरोध की शक्ति और आवाज़ बनकर विपरीत और बर्बर परिस्थितियों में भी हिम्मत जुटा कर उभरना.
आज की बानगी
लाख बँटा होने पर भी वह आज खैरलांजी के दलित-दमन के ख़िलाफ़ एकजुट होकर आंदोलित है, तो कानपुर के अपमान के विरुद्ध भी जूझ रहा है.
आज दलित-चेतना का फैलाव अंबेडकर से बुद्ध तक हो चुका है. बुद्ध के ‘अप्प दीपो भवः’ यानी अपना नेतृत्व ख़ुद करो, उनका उत्प्रेरक बन गया है.
यह एक अलग बात है कि उनका प्रतिरोध अभी इतना सक्षम नहीं कि व्यवस्था को बदल डाले.
इसी नारे के सहारे ख़ासकर हिंदी पट्टी में दलित न केवल सत्ता के गलियारे तक ही पहुँचे बल्कि वे सत्ता के खेल में मोहरे की बजाए खिलाड़ी बन गए हैं

दलित समाज को डॉ अंबेडकर के बाद अगर किसी ने सर्वाधिक प्रभावित किया तो वो कांशीराम थे. उनके ‘सत्ता में भागीदारी’ के नारे ने ऐसी उड़ान भरी कि वह शहरों से गाँव तक फैल गया और दलितों का एजेंडा हर राजनीतिक दल में आ गया.
इसी नारे के सहारे ख़ासकर हिंदी पट्टी में दलित न केवल सत्ता के गलियारे तक ही पहुँचे बल्कि वे सत्ता के खेल में मोहरे की बजाए खिलाड़ी बन गए हैं.
भटकाव
हालांकि हर आंदोलन की तरह दलित आंदोलन में भी भटकाव आया.
उनमें सवर्णों के प्रति नफ़रत भी पैदा हुई जिससे ब्राह्मणवाद के ख़िलाफ़ एक दलितवाद जन्मा, जो मात्र जातियों का रिप्लेसमेंट चाहता है, उसे तोड़ना नहीं चाहता.
वह सामाजिक परिवर्तन, समानता, भाईचारा और आज़ादी तथा जाति तोड़ो आंदोलन से विमुख होकर अवसरवादी समझौते करने लगा और कई टुकड़ों में बँट गया.
इसका एकमात्र कारण था संगठन पर व्यक्ति विशेष का हावी होना.
आज का दलित नेतृत्व भी बाकी स्वर्ण समाज की तरह ही यह तय नहीं कर पा रहा है कि वह पूँजीवाद के साथ रहे या समाजवाद के.
दलित-ब्राह्मण
दरअसल, दलितों के आदर्श आज भी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य है. आरक्षण के सहारे वे प्रशासन के गलियारे तक पहुँचे, बड़े अधिकारी, नेता, मुख्यमंत्री भी बने. फिर भी जाति तोड़ने की बजाय जाति उन्नयन की मुहिम चल पड़ी.
दलितों में दलित-ब्राह्मण पैदा हुए, जिन्होंने जाति और धर्म को मज़बूत किया. दलित समाज धर्म से भी मुक्त नहीं हो पाया

दलितों में दलित-ब्राह्मण पैदा हुए, जिन्होंने जाति और धर्म को मज़बूत किया. दलित समाज धर्म से भी मुक्त नहीं हो पाया.
चंद अपवाद छोड़कर आज भी दलितों का बड़ा तबका वैज्ञानिक सोच और तार्किकता से कोसों दूर है.
इसके बावजूद दलित स्वर एक सफल प्रतिरोधी स्वर है जो सत्ता और व्यवस्था में हस्तक्षेप करने की ताक़त रखता है.
उसकी चिंता है एक अलग परंपरा-संस्कृति का निर्माण, जिसमें समानता, श्रम की महत्ता और लोकतांत्रिक मूल्यों का समायोजन हो.
उसकी सबसे बड़ी उपलब्धि है, "अब तो वे हार नहीं विजय का अर्थ जान गए हैं. वे मरना नहीं मानरा भी सीख गए हैं. पहले वे मरने के लिए जीते थे. अब वे ज़िंदा रहने के लिए-मरने लगे हैं."

दलित होने का मतलब और मर्म

दलित होने का मतलब और मर्म

मुद्रारक्षसवरिष्ठ स्तंभकार और लेखक


मुद्राराक्षस बताते हैं कि दलित होना दास होने से भी बदतर स्थिति है
एक शब्द बहुत प्रचलित रहा है- बहिष्कृत. दलित की पहली पहचान यही है. वो समाज में रहेगा ही नहीं.
दलित होना दास होने से भी बदतर था. हालांकि दास भी समाज की मुख्य धारा का हिस्सा नहीं होते थे पर इतना तो था कि वे घरों में आ-जा सकते थे. भले ही बाँध कर रखा जाए पर उस घर में रह सकता था लेकिन अछूत के साथ तो इससे भी बदतर स्थिति रही है.
उसे तो बाँधकर भी नहीं रखा जाएगा और काम भी कराया जाएगा, सेवा भी कराई जाएगी. दासता भी कराई जाएगी और इस तरह बहिष्कृत होना बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है.
इस दलित समाज की यह कठिनाई है जो आज भी बनी हुई है.
इसमें एक मुद्दा और भी है कि इस दलित समाज में कुछ ऐसी पिछड़ी जातियाँ भी हैं जो पूरी तरह से बहिष्कृत नहीं है. ये जातियाँ उनकी सेवा में लगी रहती हैं जो इस पूरे दलित समाज को बहिष्कृत बनाकर रखते हैं.
उदाहरण के तौर पर राजनीति में मुलायम सिंह यादव या नीतीश कुमार का उदाहरण लिया जा सकता है. ये उन्हीं के साथ खड़े हैं जो समूचे दलित समाज को बहिष्कृत करने वाला वर्ग है.
इनकी वजह से बहिष्कृत समाज की स्थितियाँ और ज़्यादा ख़राब हो जाती हैं.
हाँ, एक बात ज़रूर है कि गाँवों में भी भले ही सौ में से एक या दो पर पढ़ने की ललक दलितों में बढ़ी है. मैट्रिक तक ही सही, पढ़ाई के लिए कुछ दलितों के घरों के बच्चे स्कूल पहुँचे हैं.
दलित होने का दंश
चिंताजनक यह है कि थोड़ा बहुत पढ़-लिखकर जिस दलित ने भी अपने अस्तित्व को पहचानने की कोशिश की है या अपने स्वाभिमान को समझा है, वहाँ अलगाव और भी बढ़ गया है. उसे सवर्ण वर्ग से और अधिक हमले झेलने पड़े हैं.
इसका एक बड़ा उदाहरण 1970 के दशक में भोजपुर में देखने को मिलता है. वहाँ अगर कोई दलित बाहर से पढ़कर और शिक्षक बनकर आ गया तो उसे और ज़्यादा प्रताड़ित किया गया. पटना में हॉस्टलों में पढ़ने गए दलित छात्रों को मारा गया. बाद में इनमें से कुछ नक्सली आंदोलन में शामिल हो गए.
ऐसा शहरों में भी है और आज भी है. शहरों में भी अगर कोई सफाईकर्मी किसी मुद्दे पर आज भी कुछ बोल दे तो लोग कहते हैं कि देखो कितना बोल रहा है जबकि सवर्ण वर्ग का व्यक्ति किसी भी भाषा में बोले, उसे कोई फ़र्क नहीं पड़ता है और न ही उसे कोई टोकता है.
दलित होना दास होने से भी बदतर था. हालांकि दास भी समाज की मुख्य धारा का हिस्सा नहीं होते थे पर इतना तो था कि वे घरों में आ-जा सकते थे. भले ही बाँध कर रखा जाए पर उस घर में रह सकता था लेकिन अछूत के साथ तो इससे भी बदतर स्थिति रही है

ग्रामीण स्तर पर ही नहीं बल्कि विकसित और शिक्षित शहरी परिवेश में भी स्थितियाँ बदली हुई नज़र नहीं आती हैं.
आज दलित समाज का जिलाधिकारी भी उसी बुरी मनोवैज्ञानिक और सामाजिक स्थिति में रहता है जिसमें कि सड़क के किनारे जूता सिलने वाला दलित.
सामाजिक स्थिति स्वाभाविक नहीं होती. उदाहरण के तौर पर देखें तो अगर कोई दलित अधिकारी अपने नीचे दो दलितों को नौकरी दे दे तो यह चर्चा का विषय बन जाता है पर किसी सवर्ण जाति के अधिकारी के नीचे मुश्किल से दो दलित कर्मचारी काम करते मिलेंगे.
रही बात उद्योग जगत की तो आज भी दलितों का बाज़ार में मालिक के तौर पर कोई प्रतिनिधित्व नहीं है. इस देश में एक भी बड़ा उद्योगपति ऐसा नहीं है जो कि दलित हो.
राजनीतिक पहचान का संकट
विडंबना यह है कि आज का दलित नेतृत्व इस आम दलित की मनोवैज्ञानिक पीड़ा, सामाजिक और आर्थिक दुर्दशा और शोषण पर ध्यान देने के बजाए ब्राह्मणवाद से तालमेल की राजनीति कर रहा है.
वो स्वायत्त समुदाय की अस्मिता को बचाकर रखने के लिए सक्रिय नहीं है. न तो यह काम मायावती कर रही हैं, न रामविलास पासवान कर रहे हैं और न ही आरपीआई जैसी पार्टी कर रही हैं.
ये नेतृत्व अपने इन नेताओं के झंडे तो लेकर चलता है पर इसकी बातों को न तो वह समझ रहा है, न समझना चाह रहा है और न ही उस दिशा में कोई ईमानदार कोशिश कर रहा है.
दलित राजनीति को कुछ लोग अपने निजी हितों को साधने के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं जो कि बहुत चिंता का विषय है.
वैचारिक संकट
अंबेडकर का मानना था कि तर्कों को वैज्ञानिकता की कसौटी पर कसा जाए और ब्राह्मणवाद के असली चेहरे को समाज के सामने लाया जाए. आज किसी दलित नेतृत्व में इतनी समझ ही नहीं है कि इस दुर्व्यवस्था को सामने ला सके.
कठिनाई यह भी है कि इस दलित नेतृत्व के पास न तो वैचारिक समझ है और न ही वर्तमान सामाजिक ढांचे का कोई विकल्प, जैसा कि अंबेडकर और पेरियार के पास था. उस बौद्धिक तैयारी का पूरी तरह से अभाव है

कठिनाई यह भी है कि इस दलित नेतृत्व के पास न तो वैचारिक समझ है और न ही वर्तमान सामाजिक ढांचे का कोई विकल्प, जैसा कि अंबेडकर और पेरियार के पास था. उस बौद्धिक तैयारी का पूरी तरह से अभाव है.
दलितों की अस्मिता में कुछ सुधार का श्रेय भारत में अंग्रेज़ों के शासनकाल को भी जाता है क्योंकि उनके ढांचे में जाति जैसी चीज़ नहीं थी और इसका दलितों को लाभ मिला.
पर अंग्रेज़ों से तब मिले इस लाभ पर कुछ दलित संगठन आज भी कहते हैं कि जो अंग्रेज़ कर रहे हैं, विश्व बैंक कर रहा है या आईएमएफ़ कर रहा है, वो ही सही है. ऐसा नहीं है. ये इकाइयाँ दलितों के हितों को भी बराबर नुकसान पहुँचा रही हैं.
मुझे लगता है कि दक्षिण भारत में दलित आंदोलन ज़्यादा प्रभावी है लेकिन उत्तर भारत में तो मुझे लगता ही नहीं है कि वो ब्राह्मणपंथ से समझौता किए बिना कोई काम करेंगे. इन्हें तो अपने खाते से मतलब है.

दलित आंदोलन और राजनीति की कमियाँ

दलित आंदोलन और राजनीति की कमियाँ

प्रोफ़ेसर तुलसीरामजवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली


तुलसीराम मानते हैं कि आज जातीय सत्ता का दौर आ गया है
बाबा साहेब अंबेडकर का आंदोलन दलित मुक्ति का आंदोलन था और दलित मुक्ति से मेरा मतलब है कि वर्ण व्यवस्था के अभिशाप से दलित समाज को कैसे छुटकारा मिले.
दलितों की सदियों से जो समस्या चली आ रही है, चाहे वो छुआ-छूत की हो, अशिक्षा की हो, ग़रीबी की हो, सामाजिक बहिष्कार की हो, इन सबके मूल में वैदिक धर्म था. अंबेडकर जी ने इसी वैदिक व्यवस्था पर अपने आक्रमण से आंदोलन की शुरुआत की थी.
साथ ही उन्होंने दलित समाज को जाग्रत करने की नीव डाली. उनके पहले ऐसा काम गौतम बुद्ध को छोड़कर और किसी ने नहीं किया था.
उन्होंने मनु-स्मृति को जलाकर अपने आंदोलन की शुरुआत की थी. महाड़ में जाकर पानी के लिए आंदोलन किया. मंदिर प्रवेश की समस्या को उठाया. उन्होंने दलितों के लिए गणेश-पूजा की माँग भी उठाया. उन्होंने दलितों को जनेउ पहनाने का भी काम किया.
हालांकि वो ख़ुद धर्म में विश्वास नहीं करते थे पर दलितों की मानवाधिकार की लड़ाई में उन्होंने इन बुनियादी सवालों से काम करना शुरु किया था.
अंबेडकर जैसा कोई विकल्प नहीं
अंबेडकर का विकल्प कैसे पैदा होगा जब उनके विचार को ही नहीं अपनाया जाएगा.
आज के दलित नेता पूरी तरह से भटक गए हैं. अंबेडकर को कोई नहीं अपनाता है. कोई सत्ता का नारा देता है तो कोई सत्ता में भागीदारी का नारा देता है और इन सबका उद्देश्य केवल राजनीतिक लाभ और उसके ज़रिए आर्थिक लाभ ही है

उस सोच से आज के दलित नेता पूरी तरह से भटक गए हैं. अंबेडकर को कोई नहीं अपनाता है. कोई सत्ता का नारा देता है तो कोई सत्ता में भागीदारी का नारा देता है और इन सबका उद्देश्य केवल राजनीतिक लाभ और उसके ज़रिए आर्थिक लाभ ही है.
आज के नेतृत्व में सोच का ही अभाव है और इसीलिए जो काम बिना चुनावी राजनीति में गए अंबेडकर ने कर दिखाया उसे आज के दलित नेता बहुमत पाने या सरकार बनाने के बाद भी नहीं कर पाते.
अंबेडकर जी के अनुभवों से एक बात तो स्पष्ट तौर पर देखने को मिलती है कि जैसे ही दलित संगठित होना शुरू करते हैं, हिंदू धर्म में तुरंत प्रतिक्रिया होती है और धर्म को बचाने का जिम्मा लेने वाले तुरंत लचीलापन दिखाना शुरू कर देते हैं पर इस बात को दलित समाज का नेतृत्व नहीं अपना रहा है.
खैरलांजी की घटना वैदिक काल में दलितों पर हुए अत्याचारों की पुनरावत्ति ही है जिससे यह साफ है कि वैदिक परंपरा पर हमला किए बिना दलित मुक्ति की बात करना बेमानी है.
जातीय सत्ता का दौर
मंडल आयोग से पहले तक राजनीतिक पार्टियाँ सत्ता में आती थीं. मंडल आयोग की रिपोर्ट के सामने आने के बाद से अब जातियाँ सत्ता में आती है.
जातीय सत्ता का यह जो दौर है इसे दलित मुक्ति के तौर पर नहीं देखना चाहिए क्योंकि इसमें तो लोग जाति पर कब्जा करके उसे अपने स्वार्थों के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं

जातीय सत्ता का यह जो दौर है इसे दलित मुक्ति के तौर पर नहीं देखना चाहिए क्योंकि इसमें तो लोग जाति पर कब्जा करके उसे अपने स्वार्थों के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं.
सामाजिक व्यवस्था को बदलने का अभियान, जो कि दलित राजनीति का मुख्य मुद्दा हुआ करता था, वो मुद्दा मुद्दा ही रह गया है.
जातीय राजनीति से सत्ता में आने का लाभ कुछ लोगों को ज़रूर होता है. उस जाति के भी कुछ गिने-चुने लोगों को लाभ हो जाता है पर जातीय सत्ता ने न तो दलितों का कल्याण हो सकता है और न ही जाति व्यवस्था का अंत हो सकता है.
आज का दलित नेता हिंदुत्व पर कोई हमला नहीं कर रहा बल्कि हिंदुत्ववादी शक्तियों के साथ समझौते का काम कर रहा है. मायावती तो हर जगह जा-जाकर बता रही हैं कि ब्राह्मण ही बड़े शोषित और पीड़ित हैं.
अब तो इसी समीकरण के साथ काम हो रहा है कि कुछ ब्राह्मणों को ठीक कर लो, कुछ क्षत्रियों को मिला लो, कुछ बनियों को साथ ले लो और सत्ता में बहुमत हासिल कर लो. सत्ता की यह होड़ न तो सामाजिक मुक्ति की होड़ है और न ही सामाजिक परिवर्तन की.
पेरियार और अंबेडकर
दक्षिण में जो आंदोलन चला वो पेरियार के ब्राह्मण विरोध की उपज थी. बहुत ही सशक्त आंदोलन था पर दुर्भाग्य की बात यह है कि वो ब्राह्मण विरोधी आंदोलन ब्राह्मणवाद का विरोधी नहीं बन पाया.
ब्राह्मणों की सत्ता तो ज़रूर ख़त्म हुई और पिछड़ी जातियों के नेता सामने आए पर लेकिन हिंदुत्ववादी दायरे में रहते हुए उन्हीं कर्मकांडों को वो भी मान रहे हैं जिन्हें कि ब्राह्मण मानते थे.
दक्षिण में जो आंदोलन चला वो पेरियार के ब्राह्मण विरोध की उपज थी. बहुत ही सशक्त आंदोलन था पर दुर्भाग्य की बात यह है कि वो ब्राह्मण विरोधी आंदोलन ब्राह्मणवाद का विरोधी नहीं बन पाया

एक दूसरे ढंग का ब्राह्मणवाद वहाँ आज भी क़ायम है.
उत्तर भारत में कोई ब्राह्मण विरोधी आंदोलन नहीं चला. जो भी चला वो अंबेडकर का ही आंदोलन था.
अंबेडकर के आंदोलन का प्रभाव उत्तर में ज़्यादा रहा भी पर यहाँ दलित उस तरह से सत्ता पर कब्ज़ा नहीं कर पाए जिस तरह से पिछड़े वर्ग के लोगों ने दक्षिण में किया.
दलित राजनीति का जहाँ तक प्रश्न है, दक्षिण भारत में पिछड़ों की राजनीति दलित राजनीति को निगल गई है. वहाँ तो दलित राजनीति के नाम पर कुछ नहीं है.
जो भी है वो उत्तर भारत में हैं पर उसमें समझ की भी कमी है और बिखराव भी है. सही मायने में देखें तो यह अंबेडकर का दलित आंदोलन भी नहीं है और अंबेडकर की बताई हुई दलित राजनीति भी नहीं है.

Monday, March 30, 2009

दलदल में दलित राजनीति

दलदल में दलित राजनीति

आज के भारत की सबसे बड़ी दलित नेता उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती हैं। जनसंख्या के हिसाब से देश के सबसे बड़े प्रांत के मुख्यमंत्री पद पर एक दलित महिला का पहुंचना भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में एक बड़ी घटना है। यही नहीं, वे उत्तर प्रदेश की सबसे दबंग मुख्यमंत्री साबित हुई हैं और प्रशासन पर उनकी अच्छी पकड़ है। अफसर उनसे डरते हैं। आपराधिक घटनाओं में लिप्त अपने मंत्रियों, विधायकों और सांसदों पर भी उन्होंने कड़ी कार्रवाई की है।
लेकिन सत्ता के इस मुकाम पर पहुंचने के लिए मायावती को कई समझौते करने पड़े हैं। बहुजन समाज पार्टी की कोई अलग अर्थनीति या विकास नीति तो कभी नहीं रही है, लेकिन सत्ता के इस खेल में अपनी सामाजिक नीति को भी उन्होंने छोड़ दिया है। दलितों-शूद्रों को संगठित करके ब्रान्हमणवादी व्यवस्था का ध्वंस करने का लक्ष्य अब लुप्त हो गया है। इसकी जगह जातियों को अलग-अलग तौर पर गोलबंद करके चुनाव जीतने और सत्ता में आने के समीकरण बनाने की कवायद रह गई है, जिसमें ब्रान्हमण सहित द्विज जातियों से कोई परहेज नहीं है। यह सिलसिला वैसे बिहार-उत्तर प्रदेश के पिछड़ी जातियों के नेताओं ने शुरू किया था, पर मायावती ने भी इसमें महारत हासिल कर ली और उनसे आगे निकल गई हैं। वे इसके माध्यम से सत्ता-राजनीति में सफलता का एक मॉडल दलित-पिछड़े नेता उनकी नकल करने की कोशिश कर रहें हैं।
पिछले दिनों आई एक खबर के मुताबिक पूंजीपतियों, फिल्मी सितारों की तरह सबसे ज्यादा आयकर देने वालों की श्रेणी में मायावती भी हैं। वे इस देश में सबसे ज्यादा आयकर अदा करने वाली नेता हैं। यों तो इसे दूसरे नेताओं की तुलना में मायावती की ईमानदारी के रूप में भी देखा जा सकता है, लेकिन इससे यह तो साबित होता है कि राजनीति को बेशुमार कमाई का जरिया बनाने में वे पीछे नहीं हैं। यही नहीं, उम्मीदवारों से लाखों रूपए जमा करवा कर और अपने जन्मदिन पर लाखों की थेलियां-तोहफे लेकर मायावती ने भारतीय राजनीति में खुले भ्रष्टाचार और अंध नेतापूजा का नया अध्याय शुरू किया है। दलित इस देश के सबसे गरीब, वंचित, कुपोषित और संपत्तिहीन तबकों में से हैं। उनकी नेता करोड़ों की व्यक्तिगत आय और संपत्ति अर्जित करें, यह भारतीय राजनीति की एक नई विडंबना है। मायावती ने पिछले दिनों अपने उत्तराधिकारी के बारे में भी घोषणा ऐसी शैली में की है, जैसे दलित राजनीति मानो राजवंश जैसी वंशानुगत चीज है, जिसका फैसला सामूहिक रूप से न करके महारानी को व्यक्तिगत रूप से करना है।
मुहावरों में कहें, तो मनुवाद-ब्रान्हमणवाद के खिलाफ लड़ाई अगर पूंजीवाद और आधुनिक विकास नीति के खिलाफ संघर्ष से नहीं जुड़ेगी, तो भटक जाएगी और लक्ष्य हासिल नहीं कर पाएगी। इसीलिए मायावती, अठवले या शिबू सोरेन दलितों का उत्थान नहीं कर सकते। जगजीवन राम, बूटा सिंह या रातविलास पासवान जैसे नेताओं से भी काम नहीं चलेगा। जरूरत आज एक नए आंबेडकर की है, जिसमें कुछ अंश गांधी, लोहिया और भगतसिंह का भी हो।लगभग दो साल पहले एक प्रमुख हिंदी अखबार में दलित बुिद्धजीवी चंद्रभान प्रसाद का लेख निकला था। इस लेख में यह प्रतिपादित किया गया था कि जब तक दलितों में भी पूंजीपति नहीं बन सकते। अगर एक या दो फीसद दलित पूंजीपति बन भी गए, तो बाकी अठानवे फीसद दलितों का क्या होगा? बहरहाल, इस लेख से मायावती खेमे के बौिद्धक सोच का पता चलता है और स्वयं मायावती के करोड़पति बनने का औचित्य सिद्ध करने के लिए यह लिखा गया था, ऐसा मालूम पड़ता है। ऐसा नहीं है कि यह गिरावट सिर्फ दलित नेताओं में आई है। पूरी भारतीय राजनीति का तेजी से जो पतन हुआ है, यह उसी का प्रतिबिंब है। अफसोस यह है कि दबे-कुचले लोगों की जिस राजनीति में क्रांतिकारी संभावनाएं हो सकती थीं, उसने वे सारी बुराइयां अपना लीं, जो द्विज राजनीति में व्याप्त हैं। उसने भी शान-शोकत, सामंती तामझाम, व्यक्तिवाद, परिवारवाद, मौकापरस्ती, सत्तालिप्सा, भ्रष्टाचार, अपराधी तत्वों से साठगांठ और यथास्थितिवाद को पूरी तरह अपना लिया। एक नई राजनीति गढ़ने के बजाय उसने प्रचालित राजनीति और उसकी कार्यशैली की ही नकल और उसी से होड़ की।
विडंबना यह भी है कि देश के दलित-आदिवासी जिन सवालों से जूझ रहे हैं, उनसे यह राजनीति तेजी से कटती जा रही है। केरल में पिछले कई महीनों से चेंगारा में भूमि के लिए दलितों का आंदोलन चल रहा है। उन्हें समर्थन की जरूरत है, लेकिन किसी बड़े दलित नेता की फुरसत नहीं है। राजस्थान और मध्यप्रदेश के कई इलाकों में आज भी छुआछूत का प्रचलन है, कई जगह आज भी घोड़ी पर दलित दूल्हे की बरात बैंड-बाजे के साथ गांव में नहीं निकल सकती। हरियाणा, महाराष्ट्र, तमिलनाì, बिहार आदि में झज्झर, खैरलांजी जैसे दलितों पर अत्याचार के अनेक कांड हो रहे हैं। लेकिन इन पर कोई राष्ट्रीय आंदोलन या अभियान नहीं दिखाई देता। दलितों-पिछड़ों में बेरोजगारी और कंगाली बढ़ती जा रही हैं। वैश्वीकरण के नए दौर में पूरे देश में विस्थापन की बाढ़ आ गई है, जिसके सबसे ज्यादा शिकार आदिवासी और दलित हो रहे हैं। लेकिन इसके खिलाफ झंडा उठाता हुआ और विकास की पूरी दिशा पर प्रश्नचिन्हन लगाता हुआ कोई बड़ा आदिवासी-दलित नेता नहीं दिखाई देता।
आंबेडकर ने दलितों को ऊपर उठाने के लिए िशक्षा पर बहुत जोर दिया था। शायद इसीलिए उनकी अध्यक्षता में बने भारत के संविधान में दस वर्ष के अंदर देश के सारे बच्चों को शिक्षा देने का लक्ष्य रखा गया था। लेकिन आजाद भारत की सरकारों के द्विज-आभिजात्य नेतृत्व और नौकरशाही की इस लक्ष्य को पूरा करने में कोई दिलचस्पी नहीं थी। आज भी देश के आधे से ज्यादा बच्चे कक्षा आठवीं तक भी शिक्षा हासिल नहीं कर पाते हैं। अब शिक्षा के निजीकरण, बाजीरीकरण और बहुस्तरीकरण की जो मुहिम चली है और सरकारी शिक्षा व्यवस्था को जिस प्रकार नष्ट किया जा रहा है, उससे तो बड़ी संख्या में बच्चे शिक्षा से वंचित और बहिष्कृत होंगे। इसमें सबसे ज्यादा नुकसान दलितों का ही है। अचरज की बात है कि किसी भी स्थापित दलित नेतृत्व ने िशक्षा के इस ध्वंस और भेदभावमूलक शिक्षा को बढ़ाने के खिलाफ आवाज नहीं उठाई है। उच्च शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण पर तो उनका ध्यान है, लेकिन इस आरक्षण का पूरा लाभ उठाने के लिए पहले सारे दलित-पिछड़े बच्चो को अच्छी स्कूली शिक्षा मिलनी चाहिए और यह काम समान स्कूल प्रणाली पर आधारित मातृभाषा में शिक्षा की निशुल्क सरकारी व्यवस्था से ही संभव है, यह बात वे भूल जाते हैं।
भारतीय दलित राजनीति इस मुकाम पर कैसे पहुंची और उसका यह हश्र क्यों हुआ, इसका पूरा विश्लेषण तो राजनीतिशास्त्र के पंडित करेंगे। लेकिन यहां उसकी दो प्रमुख कमजोरियों पर गौर किया जा सकता है। एक, भारत की दलित राजनीति बहुत व्यक्तिपूजक रही है। नेता के उत्कर्ष और उसके सत्ता में पहुंचने को ही दलितों के उत्थान का पर्याय मान लिया जाता है। मजबूत संगठन और सामूहिक नेतृत्व के अंकुश के अभाव में ऐसे नेताओं का पतन रोकना मुश्किल हो जाता है। दो, दलित नेताओं ने सामाजिक गैरबराबरी पर तो अपना ध्यान केंद्रित किया, लेकिन आर्थिक विषमता और शोषण के खिलाफ नड़ाई से स्वयं को दूर रखा। जबकि भारतीय पूंजीवाद की विशिष्ट वास्तविकता में दोनों प्रकार की विषमताएं एक दूसरे में गुंथी हुई और एक दूसरे को मजबूत करने वाली हैं। दोनों केा अलग-अलग करके नहीं देखा जा सकता। अगर इन हालात को बदलना है, तो दोनों लड़ाई अधूरी रह जाती है। इसी एकांगी और अधूरी दृिष्ट के कारण दलित राजनीति ने समाज के अन्य वंचित तबकों के संघर्षशील तत्वों के साथ मोर्चा बनाने की जरूरत नहीं समझी ओर उनके नेतृत्व को भी अमीर-आभिजात्य वर्ग का हिस्सा बनने में संकोच नहीं हुआ। व्यवस्था परिवर्तन की समग्र लड़ाई की रणनीति के अभाव में तबको तक सीमित आंदोलन धीरे-धीरे सत्ता में उनके नेतृत्व के समायोजन के साथ व्यवस्था में ही खप जाते हैं। (जनसत्ता)

माया की महामाया


माया की महामाया


अगर किसी के पास चांदी के पांच हजार, सोने के दस हजार और हीरे के सात सौ सतासी केवल मुकुट हों तो उसकी समूची दौलत का अंदाज आप कैसे करेंगे?
फिलहाल ये सारे मुकुट दलित शिरोमणि मायावती के खाते में हैं. दलितों की स्वयंभू मसीहा मायावती के साथ यह अन्याय पता नही क्यों किया जा रहा है कि ऐसी विकट मुकुटधारिणी होने के बावजूद उन्हें गिनीज बुक में शामिल नहीं किया गया है. यह मुकुटों की वह संख्या है जो खुद बहन जी ने अपनी संपत्ति के तौर पर घोषित की है और इसे अपने कार्यकर्ताओं के स्नेह का प्रतीक बताया है। खुद मायावती के अनुसार यह दौलत लगभग पंद्रह करोड़ रुपए की होगी।
इतना ही नही आयकर अधिकारियों के सामने अपने इस खजाने की घोषणा करने के बाद वे और रहीस हो गई हैं और इन मुकुटों में कम से कम दो सौ और जुड़ गए हैं।


बेचारी मायावती भी क्या करें? जहां जाती है लोग उन्हें मुकुट पहना देते हैं। उन्होंने दावा तो किया है कि वे एक दलित संग्राहलय बनाएगीं और सारे मुकुट उसमें रख देगीं लेकिन बहन जी का जो पिछला रिकॉर्ड है वह इस दावे पर भरोसा करने के लिए मन को अनुमति नही देता।जैसे उन्होंने दिल्ली के सरदार पटेल मार्ग पर 4.7 एकड़ का प्लॉट पार्टी कार्यालय के नाम पर खरीदा था और इसका दाम दो सौ करोड़ रुपए बताया था। राष्ट्रपति भवन के ठीक पीछे जहां यह प्लॉट है वहां जमीन का भाव दो सौ करोड़ रुपए प्रति एकड़ है। इस हिसाब से यह प्लॉट कम से कम एक हजार करोड़ का हुआ। आय कर विभाग इस संपत्ति का स्वतंत्र मूल्याकंन करवा रहा है। बाद में जैसा कि सारी संपत्तियों के साथ होता रहा है, पार्टी के नाम पर खरीदी गई संपत्तियां बहन जी या उनके परिवार के लोगों के नाम हो जाती हैं।


कम लोग जानते हैं कि एक जमाने में दिल्ली सरकार में अध्यापक की नौकरी करने वाली अब कनॉट प्लेस जैसे मंहगे इलाके में एक बहुमंजिली इमारत की मालकिन भी हैं। उन्होंने आय कर विभाग को बताया है कि उनके एक प्रशंसक और भक्त राम प्रसाद ने यह संपत्ति उन्हें भेंट की है। इन रईस राम प्रसाद का आय कर खाता जब निकाल कर देखा गया तो उसमें उनकी सालाना आमदनी दो लाख रुपए मात्र दर्ज थी। भक्ति में लोग क्या क्या नही करते। मायावती के अनुसार राम प्रसाद ने उन्हें भेंट करने के लिए इमारत बनाने के लिए कर्ज लिया है। मायावती जिस साल सिर्फ अठासी लाख रुपए का इन्कम पर टेक्स जमा करती हैं, उसी साल पांच करोड़ रुपए की संपत्तियां उनके पास आ जाती हैं।एक अप्रैल 1995 से तेइस अगस्त 2003 तक हर साल उन्होंने औसतन 90 लाख सालाना की आमदनी दर्ज करवाई है मगर अभी तक की जांच में पता चला है कि यह आमदनी सवा करोड़ रुपए के औसत से थी और जमीन जायदाद और जेवरात मिला कर इस अवधि में उनके पास नकद या संपत्ति के तौर पर सौ करोड़ रुपए पहुंचे। सरदार पटेल मार्ग की संपत्ति पहले पार्टी मुख्यालय के नाम से खरीदी गई थी मगर आय कर रिकॉर्ड में इसे श्रीमती मायावती की निजी संपत्ति दर्ज करवाया गया। बहन जी कुमारी से श्रीमती पता नही कब हो गईं। यूनियन बैंक ऑफ इंडिया के खाता नंबर 9195, नई दिल्ली शाखा में दो करोड़ सताइस लाख रुपए जमा हैं और स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की संसद मार्ग शाखा में तेइस लाख पैतालिस हजार रुपए जमा हैं। अपने पिता को अपनी उपेक्षा के लिए अपनी जीवनी में कोसने वाली बहन जी ने पुत्री का धर्म निभाया और पिता सहित परिवार के अन्य सदस्यों के पास ग्रैटर नोएडा और बुलंदशहर की बैंकों के खातों और फिक्स डिपोजिट के तौर पर ढाई करोड़ रुपए जमा हैं। मायावती की ज्यादातर संपत्ति तब जमा हुई जब वे या तो सत्ता में थी या सत्ता उनके समर्थन से चल रहीं थी। उनके गुरू और बसपा के संस्थापक कांशीराम के पास कभी इतनी दौतल नही रही. वे तो पूरी जिंदगी दिल्ली के मूलत: शरणार्थी इलाके करोल बाग के रेगरपुरा में एक छोटे से मकान में रहते रहे और बहुत बाद में सरकारी बंगले में पहुंचे। उन्होंने जो भविष्यवाणी की थी उसे उनकी शिष्या ने सच कर दिखाया है। आय कर विभाग ने मायावती के सारे रिकॉर्ड केन्द्रीय जांच ब्यूरो को सौंप दिए हैं और सीबीआई इन की पडताल कर चुकी है। बसपा के ब्राह्मण चेहरे और बहन जी के वकील सतीश चन्द्र मिश्रा इन सब आरोपों को गप्प बताते हैं और उनका दावा है कि अदालत में सब कुछ साफ हो जाएगा। उन्हें यह भी आपत्ति है कि जांच एजेंसियां इन निजी दस्तावेजों को जान बूझ कर सार्वजनिक कर रही हैं और इससे सुश्री मायावती की छवि भी बिगाड़ना चाहती हैं।आयकर अधिकारियों के अनुसार पूरे उत्तर प्रदेश में संपत्तियां पहले पार्टी कार्यालय, कार्यकर्ता केन्द्र या दलित सामुदायिक केन्द्र के नाम से खरीदीं गई मगर बाद में इन्हें बहन जी या उनके परिवार के नाम कर दिया गया। कुल मिला कर इस कहानी का सार यह है कि मायावती ने दलितों के साथ अपना भी उत्थान किया है और उनके इस कारनामे को सिर्फ आय कर के रजिस्टरों तक सीमित रखने की बजाय रिकॉर्ड पुस्तकों में भी जाना चाहिए। मायावती दिल्ली केन्द्रीय क्षेत्र में आय कर भरती हैं और इस साल के रिटर्न में उन्होंने बारह करोड़ पचास लाख रुपए का टैक्स भर दिया है और चौदह करोड़ सत्तर लाख का एडवांस टैक्स भी दो किस्तों में दे दिया है। ऐसे आदर्श करदाता का तो विभाग द्वारा नागरिक अभिनंदन किया जाना चाहिए।
(आलोक तोमर वरिष्ठ पत्रकार और डेटलाईन इंडिया के संपादक हैं.)

दलित चिंतन के मनुवादी

चंद्रभान प्रसाद अपने आप को ऐसा दलित चिंतक कहते हैं, जो अकेले ही अंग्रेजी में लिखता है. क्योंकि वे खुद अपने आप को दलित चिंतक कहते हैं और अंग्रेजी में लिखते हैं इसलिए लोगों में भी उनकी दलित चिंतक के रूप में अच्छी-खासी प्रतिष्ठा है. सीपीआई (एमएल) से अपना व्यक्तित्व बनाने की शुरूआत करनेवाले प्रसाद जब जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय पहुंचे तो उनका अंबेडकर प्रेम दहाड़े मारकर बाहर आ गया, अब तो वे मानते हैं कि वामपंथी और संघी दो ऐसे संगठन हैं जो दलितों के सबसे बड़े विरोधी हैं. हिन्दू तो दलितों के सनातन दुश्मन हैं ही.

चंद्रभान प्रसाद पहली बार लाईम-लाईट में तब आये जब मध्य प्रदेश सरकार ने उन्हें एक रिपोर्ट बनाने का जिम्मा दिया. दलितों के लिए बनी यह रिपोर्ट काफी चर्चित हुई. वे दलित चिंतक के रूप अखबारी दुनिया में थोड़ा और गहरे धंस गये. लेकिन ख्याति उन्हें तब ज्यादा मिलनी शुरू हुई जब उन्होंने मैकाले को दलितों के भगवान के रूप में स्थापित करना शुरू कर दिया. तार्किक रूप से इसमें अन्यथा कुछ भी नहीं है. अगर समाज का प्रभु वर्ग मैकाले की अघोषित पूजा करके मलाई काट रहा है तो वंचित उस मलाई से क्यों वंचित रहें? यहां दलित चिंतन के पैरोकार पता नहीं क्यों नयी तरह की सामाजिक व्यवस्था के ब्राह्मण को कोसने की बजाय जातीय ब्राह्मणों को गाली देने का आधार बनाये रखते हैं.

नयी आर्थिक नीतियों ने नये तरह के ब्राह्मणवाद को जन्म दिया है जिसका आधार जातीय तो कतई नहीं है. नये ब्राह्मणवाद को आधार बनायें तो आज के जितने दलित चिंतक हैं वे सब बहुत स्थापित ब्राह्मण हैं. वे मंहगी जीवनशैली में रहते हैं और उन दलितों का अपने समग्र विकास के लिए भरपूर इस्तेमाल करते हैं जिनके लिए समचुच काम करने की जरूरत है. मसलन, रामराज से उदितराज बने महान दलित नेता अक्सर लोगों को अपनी गाड़ी का माडल दिखाने में अपनी शान समझते हैं. नियमित रूप से नव-ब्राह्मणवाद की उन पार्टियों में जाकर जाम पकड़ने से भी कोई ऐतराज नहीं करते जिनको गाली देकर इनकी सारी राजनीति चलती है. आप सबने कई दफा यह सुना ही होगा कि मायावती दलित की बेटी हैं. लोग भूल न जाएं इसलिए वे बीच-बीच में राज-समाज को याद दिलाती रहती हैं कि वे दलित की बेटी हैं. लेकिन जब भी उनकी संपत्ति और शानोशौकत में बेतहासा बहनेवाले पैसे पर कोई अंगुली उठाता है तो यह मायावती की आलोचना की बजाय दलित की बेटी पर हमला हो जाता है. वे चलती हैं तो उनके साथ ४५-४५ लाख की तीन लैण्डक्रूजर चलती है जो पूरी तरह से बुलेटप्रूफ है. दिल्ली के सबसे मंहगे इलाके सरदार पटेल रोड के उनके बेनामी घर की बात छोड़ भी दें तो उनके खुद के पास अकूत धन संपत्ति है. जाहिर यह सब दलित राजनीति की देन है. सवाल जरूर पूछना चाहिए कि क्या यही सब दलितों का अभीष्ट है जिसे आपने पा लिया है?

राजनीति में दलितों का शोषण ब्राह्मणवादी मानसिकता ने किया और उन्हें वोट से ज्यादा कभी कुछ माना नहीं. इस कटु सत्य का दूसरा अति कसैला पहलू यह है कि दलित नेताओं ने भी दलितों को इससे ज्यादा कुछ माना नहीं कि उनके वोट की बदौलत इनकी राजनीति चलती है. समाज के शोषित वर्ग का सचमुच भला हो इसके लिए इस नव-ब्राह्मणवाद के पास प्रतिक्रिया के अतिरिक्त कुछ नहीं है. और यह प्रतिक्रिया का स्वाभाविक परिणाम होता है कि आप जिसके खिलाफ प्रतिक्रिया करते हैं आप वही हो जाना चाहते हैं. दलितों के नेता जिस ब्राह्मणवादी मानसिकता की प्रतिक्रिया के आधार पर अपने आप को टिकाये हुए हैं, मौका मिलते ही सबसे पहले वे नव-ब्राह्मण हो जाते हैं. चंद्रभान प्रसाद का मैकाले की प्रतिष्ठा करवाना इसी तरह की एक प्रतिक्रिया है जो वही हो जाना चाहता है जिससे वह लड़ रहा है. लेकिन बात यहां आकर खत्म नहीं होती. बात यहां से शुरू होती है.

मैकाले आयेगा तो यूरोप भी आयेगा और वह विकास का माडल भी आयेगा जो आज पूरी दुनिया में मानवता और पर्यावरण के सामने सबसे बड़ा संकट बनकर खड़ा है. नवभारत टाईम्स में लिखे गये एक लेख में चंद्रभान प्रसाद लिखते हैं कि "हिंसा पसंद युवकों में उम्मीद की किरण कैसे पैदा की जाए? कैसे इन्हें जिंदगी में व्यस्त किया जाए? उम्मीद की एक किरण है. वह उम्मीद पूंजीवाद में है. बशर्ते पूंजीवाद को गांवों में ले जाया जाए......खरबों डालर की संपत्ति का कोई इस्तेमाल नहीं है. इस दबी संपत्ति को पूंजीवाद ही मुक्त कर सकता है." निश्चित रूप से यह लेख केवल दलितों के लिए नहीं लिखा गया है बल्कि एक दलित चिंतक के द्वारा लिखा गया है. हमारा यह अंग्रेजी में लिखनेवाला दलित चिंतक सुझाव दे रहा है कि पूंजीवाद को गांव की नसों में भींच दिया जाए तो अरबो डालर की बेकार संपत्ति का बहाव शुरू हो जाएगा. और कुछ जानने से पहले ऐसा लिखनेवाले चंद्रभान प्रसाद तीन साल घोषित तौर पर सीपीआई (एमएल) के काडर के रूप में काम कर चुके हैं. अब यह भी जानिये कि वे जिस पूंजीवाद को गांव की नसों में भींचने की वकालत कर रहे हैं वह ऐसी व्यवस्था है जो दुनिया की सारी समृद्धि सोखकर कुछ खास देशों में निचोड़ आती है. अगर चंद्रभान प्रसाद की पूंजीवादी सोच को सही मान लें तो हमें गांधी को खारिज करना होगा, यह भी खारिज करना होगा कि भारत की अपनी कोई आर्थिक व्यवस्था थी जिसे इसी पूंजीवादी मानसिकता ने ध्वस्त कर दिया और वह जो व्यवस्था थी उसके मूल में वही लोग थे जिन्हें चंद्रभान प्रसाद दलित कहकर परिभाषित करते हैं.

ऐसा बिल्कुल मत समझिए कि चंद्रभान प्रसाद जैसे दलित चिंतक दलित की बात करते हैं तो उसमें शूद्र भी आ जाते हैं. उनकी परिभाषा में "शुद्र जब सत्ता में थे तो उन्होंने ब्राह्मणों को ठिकाने लगाने की बजाय दलितों पर अत्याचार किये." वे कहते हैं कि शूद्रों ने हमेशा दलितों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया है और शूद्र दलितों के खिलाफ एक ब्राह्णवादी हथियार की तरह काम करता है. फिर भी वे ऐसा मानते हैं दलितों और शूद्रों में एकता हो सकती है. उनकी इस कृपापूर्ण सोच का आदर करते हुए यह जरूर लगता है ऐसे दलित चिंतकों ने भी अपने से नीचे एक जाति या वर्ग बना रखा है जिसको देखकर वे श्रेष्ठता बोध धारण कर सके. ऐसे दलित चिंतकों की सोच-समझ पर एक बार पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने कहा था आजादी के आंदोलन और नये भारत के निर्माण में दो बड़े लोगों को देखें तो एक ने एक दलित महिला के वस्त्रों की तंगी देखकर जीवनभर के लिए लंगोटी पहन ली और उसी समाज से आये एक दूसरे व्यक्ति ने कोट टाई पहन ली. लेकिन दुर्भाग्य देखिए कि दलित उस लंगोटीधारी को अपना नेता नहीं मानते. निश्चित रूप से उनका संकेत गांधी और अम्बेडकर की ओर था. इसमें अन्यथा कुछ नहीं है. दमित वर्ग हो या व्यक्ति उसको प्रतीक और लक्ष्य चाहिए जिसे हासिल करके वह विजेता होने का दावा कर सके. ऐसे में अम्बेडकर दलितों के सामने प्राप्ति के लिए एक लक्ष्य देते हैं, लेकिन दुर्भाग्य से वह लक्ष्य हमारे अपने ही लोगों को अभारतीय बना देता है. चंद्रभान प्रसाद को निश्चित रूप से इस बारे में सोचना चाहिए कि जड़ें आसमान में होती हैं या जमीन में? अगर प्रकृति का सिद्धांत जड़ों को जमीन से जोड़ता है तो चंद्रभान प्रसाद जैसे दलित चिंतक कौन सा अचंभा स्थापित करना चाहते हैं?