Sunday, March 29, 2009

चलो चर्च पूरब की ओर

चलो चर्च पूरब की ओर

भारत में धर्मांतरण के प्रतिक्रियास्वरूप अगर कहीं भी चर्च पर हमला होता है तो चर्च पूरब से ज्यादा पश्चिम के देशों में हल्ला मचाता है. आप जानना चाहते होंगे कि ऐसा क्यों? इसके दो कारण है. पहला कारण, इससे उनके धन संग्रह में बहुत मदद मिलती है और दूसरा कारण पश्चिमी ईसाई देशों के दबाव में आकर भारत सरकार चर्चों के संरक्षण और संवर्धन में जुट जाती है. इस तरह हमलों को चर्च अपने फायदे के लिए भरपूर इस्तेमाल कर लेते हैं.
अगले कुछ महीनों के अंदर होने वाले लोकसभा चुनावों के ठीक पहले राष्ट्रीय एवं अतंरराष्ट्रीय स्तर पर `चर्च एवं चर्च अधिकारियों, आम ईसाइयों पर हमलों का शोर उठ खड़ा हुआ है। पोप बैन्डिक्ट सोहलवें ने इन हमलों पर अपनी चिंता जताई है. उसके कुछ दिनों बाद ही इटली की सरकार ने भारतीय ईसाइयों एवं मिशनरियों की सुरक्षा को यकीनी बनाये जाने की मांग भारत सरकार से की है। कल ही अमेरीका के `धार्मिक अजादी पर विदेश विभाग´ की दसवीं वार्षिक रिर्पोट पेश की गई है। `इंटरनेशनल रिलीजियस फ्रीडम´ के विषेश राजदूत जॉन हैनफर्ड ने भारत से धार्मिक स्वतंत्रता की रक्षा करने के लिए कहा है। निश्चित ही चर्चों के खिलाफ भड़की हिंसा के मदे्नजर यह बात कही गई है।
उड़ीसा के कंधमाल एवं कर्नाटक में चर्चों पर हुए हमलों की जिनती निंदा की जाए वह कम है इन राज्यों में भड़की हिंसा के दौरान ईसाई एवं हिन्दू समुदाय के लोगों को अपने जान-माल का नुकसान उठाना पड़ा है। उड़ीसा में हिंसा की शुरुआत `स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या के बाद हुई। स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती पिछले चार दशकों से धर्मांतरण के विरोध में मोर्चा खोले हुए थे ऐसा उनके अनुयायियों का दावा है। वहीं कर्नाटक में कुछ ईसाई मिशनरियों द्वारा हिन्दू देवी देवताओं के विरुद्व अभद्र एवं आपत्तिजनक सहित्य के वितरण के विरुद्ध हिंसा ने उग्र रुप ले लिया।

कंधमाल और कर्नाटक में हिंसा के कारण धर्मांतरण का मूल मुद्दा पीछे चला गया और `ईसाइयों का उत्पीड़न´ ही बहस के केन्द्र में आ गया. केन्द्र सरकार ने भी कर्नाटक एवं उड़ीसा की जनमत से चुनी गई सरकारों को चेतावनी भरे लहजे में कड़े निर्देश दिये हैं. अगर केन्द्र एवं राज्यों की यह सरकारें धर्मांतरण और इसके कारण भड़की हिंसा की तह में जाने से घबराती है तो आज भले ही सरकारी डडें के बल पर शांति कायम कर ली जाए उसकी स्थिरता की गारंटी कौन दे सकेगा?

आज भारत में ईसाइयों की सरकारी जनगणना में आबादी 2.5 प्रतिशत है। हालाकि गैर-सरकारी सूत्र इनकी जनसंख्या पांच करोड़ से ऊपर मानते है क्योंकि चर्च के बारे में यह सत्य है कि वह अपना साम्राज्यवाद बढ़ाने के लिये अपने अनुयायियों को `दो धर्म एक जाति´ वाली स्थिति में रहने को गलत नहीं मानता। चर्च अधिकारियों को वंचित वर्गों में घुसपैठ करने के लिए मौजूदा समय में भारतीय कानून अड़चन डाल रहे है, इस कारण वह अनुसूचित जातियों से मतांतरित हुए अपने अनुयायियों को अनुसूचित जातियों की सूची में शामिल करवाने के लिए सुप्रीम कोर्ट से लेकर देश की संसद तक राजनीतिक पार्टियों के सहयोग से दबाव बनाये हुए है। चर्च अधिकारियों का मत है कि `धर्म बदल लेने से व्यक्ति की सामाजिक स्थिति नही बदलती´ यहां चर्च से पूछा जा सकता है कि अगर सामाजिक या आर्थिक स्थिति में बदलाव ही नहीं होना है तो धर्मांतरण का यह व्यपार किस लिये? उड़ीसा के कंधमाल में फैली साप्रदायिक हिसा के पीछे भी `आरक्षण´ का मुद्दा अहम है। वहां बड़ी संख्या में मतांतरित हुए`पाण´जाति के लोग जो पूर्व में अनुसूचित जातियों की सूची में शामिल थे अपना `आरक्षण´ गंवा चुके है। अब चर्च अधिकारी मांग कर रहे है कि उन्हें `कंध´ जनजाति का दर्जा दिया जाए तांकि उनका आरक्षण बहाल हो सके जिसका बहूसंख्यक हिन्दू कंध विरोध कर रहे हैं।दरअसल चर्च अधिकारियों को धर्मांतरण की अपनी दुकान चलाये रखने के लिए इस तरह के कानून में बदलाव की जरुरत है क्योंकि इंवैजलाइजेशन अर्थात धर्म प्रचार ने एक व्यापारिक रुप ले लिया है। इंवैजलाइजेशन के नाम पर पश्चिमी देशों से हजारों करोड़ का अनुदान देने वाले दान-दाता `ईसाइयत की संख्या में बढ़ोत्तरी´ दिखाने का दबाव बनाए रखते है। यही दबाव चर्च अधिकारियों को उग्र एवं दूसरे धर्मों की निंदा तक ले जाते है। चर्च की नजर इस देश की 16 करोड़ से भी ज्यादा हिन्दू आबादी पर है। देश भर में वंचित हिन्दू बस्तियों में `सेवा एवं सामाजिक समूहों´ को जोड़ने के नाम पर सामाजिक संगठनों के मध्यम से हजारों योजनाए चलाई जा रही है। यह सामाजिक संगठन धर्मांतरण की जमीन तैयार करने का पहला `कारखाना´ है। अगर चर्च अधिकारी वंचित वर्गों के इतने ही हमदर्द हैं तो उन्हें देश को यह बताना चाहिए कि `2.5 प्रतिशत होने के बावजूद भारत की 22 प्रतिशत शिक्षण संस्थानों एवं 30 प्रतिशत चिकित्सा सेवाओं पर उनका कब्जा कैसे है? भारत सरकार के बाद उनके पास दूसरे नम्बर पर भूमि है। राजनीतिक भागीदारी में भी वह पीछे नहीं है। भारतीय जनता पार्टी को छोड़कर कांग्रेस,जनता दल, वामपंथी एवं क्षेत्रीय पार्टियों में उनका अच्छा खासा हिस्सा है। मौजूदा समय में डेढ़ दर्जन से ज्यादा संसद सदस्य एवं कुछ राज्यों में मुख्यमंत्री पद तक उनके पास है। सत्तारूढ़ काग्रेस पार्टी में कई ईसाई संसदों एवं चर्च अधिकारियों की तूती बोलती है। इतना सब कुछ होने के बावजूद वह अपने घर में वंचित वर्गों से मतांतरित हुए अपने अनुयायियों का विकास करने में असमर्थ रहे हैं, तो यह मान लेना चाहिए कि मुद्दा विकास के अलावा कोई और है। देश की राजनीति एवं प्रशासन में अच्छी खासी पैठ रखने के बावजूद चर्च अधिकारी अपने प्रति हो रही छोटी -मोटी ज्यादतियों को भी अंतरष्ट्रीय स्तर पर उठाने में ज्यादा विश्वास रखते है। 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में बनी गैर काग्रेसी सरकार के समय भी विदेशों में बहुत शोर मचा था। राजग के छह साल के शासनकाल में `चर्च अधिकारियों´ के प्रति उत्पीड़न एवं ज्यादतियों के बारे में संयुक्त राष्ट्र संघ से लेकर विभिन्न देशों के कई `मानवाधिकार आयोगों´ ने हजारों पन्नों की रपटें प्रकाशित की थी। इस तरह की रपटों के कारण देश की बदनामी तो होती ही है अतंरराष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक नेतृत्व को भी शर्मसार होना पड़ता है। उस समय तो खुद अटल बिहारी वाजपेयी पोप से मिलने गये थे। ऐसी रिर्पोटों के राजनीतिक मायने भी होते है। गैर कांग्रेसी सरकारों या भारतीय जनता पार्टी को `ईसाई विरोधी´ बताकर उसके सहयोगी दलों पर सामाजिक एवं मानसिक दबाव बनाया जाए तांकि गैर कांग्रेसी गठजोड़ सत्ता से दूर ही रहे।
हालांकि यह सब जानते है कि लोकतांत्रिक पद्धति में कोई भी राजनीतिक दल पांच-छह करोड़ की जनसंख्या वाले वर्ग की नराजगी /दुश्मनी मोल नहीं ले सकता। भारतीय जनता पार्टी भी नही। चर्च अधिकारियों, मिशनरियों को अब समझ आ जाना चाहिए कि भारतीय समाज की सोच उनके प्रति बदल रही है अत: यही समय है कि वह विदेशी/पश्चिमी सरकारों की बजाय भारतीय सरकार, भारतीय कानून, भारतीय राजनीतिज्ञों पर विश्वास करें, इस तरह की विदेशी रिपोर्टें उनके प्रति समाज का नजरिया बदलने के काम नही आयेगी। हाल ही में जम्मू कश्मीर में हुए आंदोलन को देखकर यह समझा जा सकता है। शुरू में भले ही इस आंदोलन के पीछे भाजपा या राष्ट्रीय संवयसेवक संघ का समर्थन रहा हो लेकिन जल्द ही यह आंदोलन जनता के आंदोलन में तब्दील हो गया था जिसमें सरकार एवं प्रशासन भी परिस्थितियों से निपटने में असहाय नजर आए।चर्च अधिकारी आज ईसाइयत में स्वदेशी सभ्यता एवं संस्कृति को शामिल करने की योजना भी बना रहे है इसके लिए जरुरी है कि हम धर्मांतरण जैसी गतिविधियों का परित्याग करे। विदेशी मिशनरियों एवं पश्चिमी देशों पर अपनी आत्मनिर्भरता को कम करें। दूसरे धर्मों के देवी-देवताओं के बारे में अपनी सोच में बदलाव लाये, कर्नाटक में हिंसा के लिए इस तरह की गतिविधियां एवं सहित्य एक बड़ी वजह थी। हम अपने प्रभु की अराधना करते हुए अपने घर के वंचितों के उद्धार में जुट जाएं और दूसरों को उनकी अपनी आस्था पर चलने दे तो शायद किसी को समास्या नहीं होगी।

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