Wednesday, March 25, 2009

मानवाधिकार और दलित समाज की स्थिति


मानवाधिकार और दलित समाज की स्थिति

रवि नायरनिदेशक, एशिया पैसिफ़िक ह्यूमन राइट्स नेटवर्क


देश में उत्पीड़न निरोधक क़ानूनों के प्रयोग न होने पर सवाल उठते रहे हैं
मानवाधिकारों के संदर्भ में जो भी सरकारी प्रयास हुए हैं वो लागू करने के स्तर पर एकदम विफल रहे हैं. उत्पीड़न निरोधक क़ानून के लागू न होने के चलते अत्याचार बढ़ता ही गया है.
आज से नहीं, पिछले पाँच दशकों से, जबसे उत्पीड़न विरोधी क़ानून आए हैं, चाहे वो तमिलनाडु का मामला हो, सिंगूर की घटना हो या भरतपुर में दलितों को मारने की घटना रही हो, इन क़ानूनों को इस्तेमाल नहीं किया गया है.
एक वजह और भी है और वह है ऊपरी अदालतों तक गांव के शोषित दलित की पहुँच न हो पाना. इसका लाभ भी शोषण करने वालों को मिला है.
ऐसा नहीं है कि आज भी दलित समाज में मानवाधिकारों को लेकर जागरूकता नहीं है. 10 वर्ष पहले तक ऐसा नहीं था पर देशभर में पिछले एक दशक से भी ज़्यादा समय की जो राजनीतिक स्थिति रही है, उससे बहुत ज़्यादा जागरूकता आई है.
इसकी सबसे बड़ी वजह है राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव. न तो राज्य विधानसभाओं में है और न ही देश की संसद में है. इसके अलावा जिन्हें इस दिशा में कुछ ज़िम्मेदारी सौंपी गई है उन्होंने इस दिशा में कुछ नहीं किया है.
आप राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग का ही उदाहरण ले लें. इसने पिछले कई वर्षों से अपनी रिपोर्ट ही पेश नहीं की है जबकि इन्हें हर वर्ष अपने रिपोर्ट पेश करनी होती है और उसपर विचार विमर्श होता है.
ज़रूरत
तो इसके लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति और निगरानी, दोनों की ही ज़रूरत है.
दूसरी अहम बात यह है कि हम इस देश को आजतक यह ही नहीं समझा पाए कि आरक्षण की ज़रूरत क्यों है. इसपर अभी भी गतिरोध क़ायम है.
इसकी सबसे बड़ी वजह है राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव. न तो राज्य विधानसभाओं में है और न ही देश की संसद में है. इसके अलावा जिन्हें इस दिशा में कुछ ज़िम्मेदारी सौंपी गई है उन्होंने इस दिशा में कुछ नहीं किया है

ऐसी स्थिति में आरक्षण भी उस तरह से प्रभावी होकर लाभ नहीं पहुँचा पा रहा है जिस तरह से होना चाहिए था.
मानवाधिकारों के हनन के मामले सामाजिक रूप से तो हैं ही, आर्थिक कारणों से भी बहुत सारे हैं. ईट भट्ठों से लेकर घर तक, न्यूनतम मज़दूरी के सवाल से लेकर समाज में रहने तक, कुँए के पानी से लेकर पाठशाला में बैठने तक, अपने घर में शादी के मौके पर गाजे-बाजे तक जैसे कई उदाहरण हैं जो समझाते हैं कि आज भी दलितों को सामाजिक अधिकार नहीं मिल रहे है.
अब इसका समाधान केवल भाषणबाज़ी के आधार पर नहीं होने वाला है. भारत में भी सरकार को चाहिए कि वो अमरीका में मार्टिन लूथर किंग के काम से सीख लेते हुए इस दिशा में प्रभावी क़दम उठाए.
महिलाओं की स्थिति
दलित महिलाओं को बाहर से लेकर घर की चाहरदीवारी तक हिंसा और उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है.
अगर वो पानी भरने जाए, गाँव से दूर या नदी, तालाब की ओर तो उसे घेरा जाता है, वो शौंच के लिए जाए तो बड़ी जाति के लड़के उसके अकेलेपन का लाभ उठाकर उसका शोषण करते हैं या उसे अपमानित करते हैं.
दलित महिलाओं को हिंसा और उत्पीड़न का बहुत सामना करना पड़ा है
यहाँ तक कि खाना पकाने के ईधन को जुटाने में भी उसे इन स्थितियों से गुज़रना पड़ता है क्योंकि बड़ी जाति के लोगों के पास ज़मीन है, बाग हैं, खेत हैं, गाय हैं पर भूमिहीन दलित परिवारों की महिलाओं को तो उन्हीं पर निर्भर होना पड़ता है जिसका लाभ उठाया जाता है.
इसीलिए पानी, शौच और ईधन, इन तीनों की व्यवस्था के लिए सरकार को कारगर क़दम उठाने होंगे. इस तरह के आर्थिक कार्यक्रमों के अलावा सामाजिक और शैक्षणिक कार्यक्रम भी बनाने पड़ेंगे.
पुलिस का रवैया
यह एक बहुत ही अहम पहलू है कि हमारी पुलिस व्यवस्था दलित समाज को किस तरह से देखती है, उनके साथ कैसा बर्ताव करती है.
चिंता की बात यह है कि मानवाधिकार संगठनों और जन संगठनों में इस सवाल को लेकर जिस तरह की तेज़ी और संवेदनशीलता होनी चाहिए थी, वो नहीं है

पुलिस और राजशक्ति का रवैया बिल्कुल ही दलित विरोधी रहा है.
पुलिस महकमे में भी दलितों की तादाद कम है और देखने में यह आया है कि पुलिसकर्मियों में दलितों के प्रति जो सहानुभूति होनी चाहिए, वो नहीं है.
पहले तो दलितों के उत्पीड़न के मामले में प्राथमिकी ही दर्ज नहीं की जाती और अगर हो भी गई तो चार्जशीट नहीं भरी जाती है. अक्सर ऐसा देखने को मिला है.
अभी हाल ही में नागपुर की घटना में भी ऐसा ही हुआ. उत्पीड़न निरोधक क़ानूनों के तहत मामला दर्ज ही नहीं किया गया.
चिंता की बात यह है कि मानवाधिकार संगठनों और जन संगठनों में इस सवाल को लेकर जिस तरह की तेज़ी और संवेदनशीलता होनी चाहिए थी, वो नहीं है. इससे बेहतर संवेदनशीलता तो 60 और 70 के दशक में मानवाधिकार संगठनों में रही.
इस दिशा में एक मज़बूत जन आंदोलन की आवश्यकता है.
(पाणिनी आनंद से बातचीत पर आधारित)

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