Wednesday, March 25, 2009

आरक्षण और सामाजिक समता का सवाल


मंगलवार, 05 दिसंबर, 2006 को 14:40 GMT तक के समाचार

आरक्षण और सामाजिक समता का सवाल

अरविंद मोहनवरिष्ठ पत्रकार


अरविंद मोहन मानते हैं कि आरक्षण ने राजनीति से लेकर सामाजिक व्यवस्था तक को बदला है
आज़ाद भारत के समाज में विभिन्न योजनाओं और सारे सरकारी प्रयासों ने जितने बदलाव किए हैं, उनसे कहीं ज़्यादा लोकतंत्र और उससे निकली व्यवस्थाओं से मिले एक आरक्षण ने कर दिया है.
आरक्षण की बात तो अंग्रेज़ी हुकुमत के समय से ही हवा में थी लेकिन तब जातिगत सर्वेक्षण, अलग आरक्षित सीटों का प्रावधान और आरक्षण जैसी व्यवस्थाओं के पीछे समाज में दरारें बढ़ाने की मंशा ज़्यादा थी और यह बात आज अलग से साबित करने की ज़रूरत नहीं है.
आरक्षण की व्यवस्था आज़ादी के समय ज़्यादा ठोस और क़ानूनी रूप में आई पर सिर्फ़ दलितों और आदिवासियों के लिए.
बीच-बीच में तमिलनाडु जैसे प्रदेशों में पिछड़ी जातियों के लिए भी आरक्षण आया पर पूरे देश के स्तर पर तो इसे मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू होने तक इंतजार करना पड़ा.
मंडल के बाद
अगर मंडल बाद की राजनीति और सामाजिक नेतृत्व पर गौर करें तो पाएँगे कि 15 वर्ष से भी कम समय में सारा कुछ बदल गया है.
यहाँ तक कि संसद के चरित्र से लेकर आधे से ज़्यादा राज्यों की राजनीति भी एकदम बदल गई है.
दलितों और आदिवासियों के लिए आरक्षण ने भी काफ़ी बदलाव किया पर मंडल के बाद हुए बदलावों ने आरक्षण रूपी सामाजिक मंत्र की असली ताक़त को उजागर किया.
जिन राज्यों में पिछड़े नेता सिर्फ़ शोभा की चीज़ होते थे वहीं आज अगड़े शोभा की चीज़ भी नहीं रह गए हैं और जो कथित राष्ट्रीय पार्टियाँ अगड़े नेतृत्व के भरोसे बैठी रहीं उनको आज ऐसे इलाकों में ज़मीन नहीं मिल रही है.
जिन राज्यों में पिछड़े नेता सिर्फ़ शोभा की चीज़ होते थे वहीं आज अगड़े शोभा की चीज़ भी नहीं रह गए हैं और जो कथित राष्ट्रीय पार्टियाँ अगड़े नेतृत्व के भरोसे बैठी रहीं उनको आज ऐसे इलाकों में ज़मीन नहीं मिल रही है

आरक्षण के पक्ष-विपक्ष में काफ़ी तर्क बीते 50 वर्षों से ज़्यादा समय से आ रहे हैं पर इसी दौरान इसने समाज में जो भारी बदलाव ला दिया है उसका ढंग से अध्ययन भी हुआ नहीं दिखता.
और तो और, दलित आदिवासियों के बीच हुए बदलाव का लेखा-जोखा भी नहीं लिया गया.
पर संसद से लेकर पंचायत तक में हुए बदलावों से साफ़ है कि एक बड़ी सामाजिक क्राँति हो चुकी है और आरक्षण के मंत्र ने जो सामाजिक ऊर्जा पैदा की है उसके आगे कोई जातिवादी व्यवस्था नहीं ठहर सकती.
चिंता
अब इतना ज़रूर हुआ है कि आरक्षण के मुद्दे ने नए सिरे से जातिवाद को भी जन्म दिया है या सोते पड़ रहे जातिवाद को जगा दिया है.
यह भी हुआ है कि हमारे मौजूदा पिछड़े नेतृत्व ने इस अपार सामाजिक ऊर्जा को सही दिशा देकर उससे बड़े काम करने की जगह ख़ुद ब्राह्मणवादी नेतृत्व की घटिया कार्बन कापी बनने का काम किया है.
उसने बड़ी आसानी से पुराने नेतृत्व की घटिया चीज़े सीखने के साथ ही पिछड़ों-दलितों-आदिवासियों-ग्रामीण समाज के ख़िलाफ़ काम करने वाले भूमंडलीकरण के आगे घुटने टेके हैं. कई जगह उसने सांप्रदायिक शक्तियों से भी हाथ मिलाया है.
आरक्षण से आए बदलावों का ढंग से अध्ययन नहीं किया गया है
लेकिन इन कमियों का दोष आरक्षण की व्यवस्था और उससे निकली सामाजिक ऊर्जा को क्यों दिया जाए?
आरक्षण ने अपना काम किया है और इसका असर आज हर कहीं दिख रहा है.
भावनात्मक जातिवाद
जातिवाद अगर नए सिरे से उभरा है तो ताक़तवरों के जातिवाद की जगह पिछड़ों-कमजोरों के जातिवाद का मतलब भावनात्मक ही मानना चाहिए.
अभी तक पिछड़ों के जातिवाद ने कहीं भी हिंसक रूप नहीं लिया है जबकि जातिवादी जकड़न हज़ारों वर्ष से रही है.
इसी जकड़न के ख़िलाफ़ भगवान बुद्ध से लेकर बाबा साहब अंबेडकर ने निरंतर संघर्ष किया पर अपने समाज में जाति के स्वरूप का विश्लेषण और जाति तोड़ने में आरक्षण के मंत्र की व्यवस्था पर डॉ राममनोहर लोहिया का चिंतन और उनकी राजनीति सबसे अलग और प्रभावी रही.
डॉक्टर साहब की यह मान्यता भी काफ़ी दमदार थी कि जब तक पिछड़ों को आगे लाने का काम नहीं होगा तब तक समाज अपनी पूरी ऊर्जा से काम नहीं कर पाएगा. वे विदेशियों के हाथों भारत को बार-बार पराजित होने का कारण भी जाति व्यवस्था को मानते थे.
अब यह दुखद है कि डॉक्टर लोहिया के शिष्य उनके बताए रास्ते को संभालने, रचनात्मक काम में लगाने और जाति व्यवस्था को समाप्त करने का काम भूल गए हैं. पर इस व्यवस्था ने ख़ुद में जो बदलाव किए हैं उनसे निश्चित रूप से समाज ज़्यादा समतापूर्ण बना है, उसकी दबी ऊर्जा सामने आई है.

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