Sunday, June 21, 2009

दलित देवताओं की पांत की नई दावेदार

शुरू-शुरू में जब भी किसी शहर में मैंने भारतीय संविधान के निर्माता डॉ. भीमराव अम्बेडकर की सूट-बूट और टाई वाली प्रतिमा या तस्वीर देखी, मेरे मन में यह सवाल आया कि भारत जैसे देश में हमारा कोई महान नेता कैसे इस तरह की वेशभूषा में राजनीति करता होगा। एक तरफ महात्मा गांधी, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, सरदार वल्लभ भाई पटेल, भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद जैसे नेताओं की टिपिकल मूर्तियों को देखकर मुझ सवर्ण हिंदू में गर्व पैदा होता था, तो दूसरी तरफ बाबा साहब आम्बेडकर की मूर्तियां देखकर मन में प्रश्न पैदा होता था।

काफी बाद में जब दलित चिंतक चंद्रभान प्रसाद का एक लेख मैंने पढ़ा तब समझ में आया कि ये मूर्तियां देश के दलितों में स्वाभिमान और आत्मविश्वास का भाव पैदा करती हैं। यह कि, एक दलित का प्रतिभाशाली पुत्र अगर किसी सवर्ण की तरह सम्मान और प्रतिष्ठा अर्जित कर सकता है तो सदियों से वर्ण व्यवस्था का अभिशाप झेल रहे तमाम दलितों के लिए भी यह मुमकिन होना चाहिए। कि गांव और नगरों के बिल्कुल सिरों पर अपनी अलग बस्तियों में आधे-अधूरे आदमी की नारकीय जिंदगी जीने वाले दलितों के लिए हमारे समाज में बराबरी का दर्जा क्यों नहीं है।

डॉ। आम्बेडकर आज दलित अस्मिता के पूजनीय प्रतीक हैं लेकिन क्या यूपी की मुख्यमंत्री मायावती के बारे में भी यह बात निर्विवाद तौर पर कही जा सकती है, जिन्हें अपने जीवनकाल में ही अपनी मूर्तियां लगवाने के लोभ में किसी भी तरह की कोई मर्यादा का ख्याल नहीं है।

सुप्रीम कोर्ट में दो वकीलों ने यूपी सरकार का हवाला देते हुए एक याचिका दायर की है कि मायावती की आठ मूर्तियां लखनऊ में लगवाने के लिए 3 करोड़ 49 लाख रुपये खर्च किए गए हैं। मायावती को राजनीति में लाने वाले मान्यवर कांशीराम की 7 मूर्तियों पर पहले ही 3 करोड़ 37 लाख रुपये खर्च किए जा चुके हैं जबकि उनकी बीएसपी के चुनाव चिह्न 'हाथी' के 60 स्टैच्यू बनवाने पर 52 करोड़ 20 लाख रुपये खर्च किए जा रहे हैं। एक स्टैच्यू की कीमत 87 लाख रुपये आएगी जबकि एक जिंदा हाथी कहावत की भाषा में सवा लाख रुपये का भी शायद ही मिले।

रविकांत और सुकुमार नामक इन दोनों वकीलों ने सुप्रीम कोर्ट से अपील की है कि एक तो करोड़ों रुपये के इस मूर्ति घोटाले की सीबीआई से जांच कराई जाए और दूसरा यह देखा जाए कि किस तरह मायावती अपने चुनाव चिह्न को गौरवान्वित करने के लिए करदाताओं के पैसे का दुरुपयोग कर रही हैं।

आर.टी.आई. (सूचना का अधिकार)के तहत जानकारी दी गई है कि लखनऊ में भीमराव आम्बेडकर सामाजिक परिवर्तन स्थल में मायावती और कांशीराम की 24 फीट ऊंची दो विशाल मूर्तियां लगाई गई हैं और हर मूर्ति की कीमत 1 करोड़ 55 लाख रुपये चुकाई गई है।

मायावती और कांशीराम नि:संदेह दलित जातियों में गर्व का भाव पैदा करते हैं और इन्होंने विशुद्ध अपने दम पर डॉ. आम्बेडकर के स्वप्न को भी साकार किया है, लेकिन यूपी जैसे गरीब प्रदेश में एक दलित मुख्यमंत्री की भूमिका दलित उत्थान की होनी चाहिए या सिर्फ इस तरह की प्रतीकात्मकता की? हाल ही में देश में छुआछूत के बारे में हुए एक राष्ट्रीय सर्वे (सुखदेव थोराट, घनश्याम शाह, सतीश देशपाण्डे, हर्ष मंदर और अमिता बाविस्कर) के अनुसार आज भी 38 फीसदी सरकारी स्कूलों में दलितों के बच्चों को खाने के वक्त सवर्णों से अलग बैठाया जाता है। देश के 11 बड़े राज्यों के 565 गांवों में किए गए इस सर्वे में बताया गया है कि इनमें से करीब-करीब आधे गांवों में दलितों को नदी, तालाब, कुएं और सरकारी नल तक नहीं पहुंचने दिया जाता, जिसे पढ़कर उपन्यास सम्राट प्रेमचंद की प्रसिद्ध कहानी 'ठाकुर का कुंआ' की याद ताजा हो जाती है।

आजादी के 60 साल बाद भी आज यह रोंगटे खड़े करने वाली स्थिति है। आज भी इनमें से करीब एक तिहाई गांवों में दलित लोग दुकानों में नहीं घुस सकते, जबकि करीब आधे गांवों में दलितों के सड़कों पर बरात निकालने पर रोक है। सर्वे में पाया गया कि अगर दलितों ने साफ-सुथरे फैशनेबल कपड़े पहने हैं या महंगे चश्मे लगाए हैं तो सवर्ण यह बर्दाश्त नहीं करते। दलितों के गुरुद्वारे और मंदिर भी अलग हैं और मरने के बाद भी उनका श्मशानों में प्रवेश वर्जित है।

इस पृष्ठभूमि में डॉ. बाबा साहब आम्बेडकर की मूर्तियों की जरूरत तार्किक है। लेकिन जिस देश में एक दलित राष्ट्रपति हो चुका हो, एक दलित उपप्रधानमंत्री रह चुका हो और एक दलित महिला लोकसभा के स्पीकर के पद पर बैठी हो, उसमें मायावती का मूर्तिकरण का यह प्रयास जनता के पैसे से अपनी राजनीति चमकाने के अलावा और क्या माना जाए?

भारत में रैदास जैसे अनेक दलित संत हो चुके हैं, जिनके पद भजन और अभंग दलितों और सवर्णों को समान रूप से आनन्दित करते हैं लेकिन वे भी बहन मायावती की मूर्तियों सा महत्व नहीं पा सके। लगानी ही है तो महात्मा ज्योतिराव फुले की मूर्तियां क्यों नहीं लगाई जानी चाहिए? यह ठीक है कि कांशीराम ने जब यह देखा कि यूपी में उन्हीं के सहयोग से बनी मुलायम सिंह यादव की सरकार के बावजूद यादव और अन्य पिछड़ी जातियों के दलितों पर हमले बढ़ रहे हैं तो जहां उन्होंने अपना कड़ा प्रतिरोध दर्ज कराया, वहीं दलितों में एक राजनैतिक चेतना जाग्रत करने के लिए गांवों और कस्बों में आम्बेडकर की मूर्तियां लगवाने की मुहिम शुरु की। मार्च 1994 में जब मेरठ में एक पब्लिक पार्क में लगी आम्बेडकर की मूर्ति हटा दी गई तो दलितों ने एक आंदोलन सा खड़ा कर दिया। कोई चार महीनों के अंदर आम्बेडर की मूर्तियां लगाने को लेकर 64 हिंसक घटनाएं हुईं जिनमें 21 दलित मारे गए। बीएसपी-एसपी गठबंधन के टूटने के पीछे यह भी एक कारण है कि यादव और दलितों के बीच जातिगत भेद राजनैतिक समीकरणों पर भारी पड़े। मुलायम सिंह यादव ने इस मूतिर्करण का जवाब समाजवादी जननायकों के स्टैच्यु आदि लगाकर दिया।

जो भी हो इसमें कोई शक नहीं कि जब भगवान बुद्ध और महात्मा फुले के साथ जगह-जगह डॉ. आम्बेडकर की मूतिर्यां यूपी में लगाई गईं तो दलितों में आम्बेडकर का दर्जा एक महापुरुष ही नहीं बल्कि देवता का सा हो गया। इस मूर्तिपूजक देश में महापुरुष कालान्तर में देवता के पद पर प्रतिष्ठित हो जाते हैं। डॉ. आम्बेडकर ने यह पद अर्जित किया है जो अपनी बौद्धिकता और राजनैतिक दर्शन से एक स्तर पर गांधी को भी चुनौती देते हैं। कांशीराम का दलित चेतना जाग्रत करने में निश्चय ही महान योगदान है, जिन्होंने डॉ. आम्बेडकर की तरह यह समझा कि जब तक दलितों का सत्ता पर कब्जा नहीं होगा, उन्हें समाज में बराबरी का दर्जा नहीं मिलेगा। लेकिन वह कोई बुद्धिजीवी नहीं थे इसलिए शिक्षा और सामाजिक सुधारों के मसले पर वे ऐसा कोई कदम उठाते नहीं दिखाई देते जिससे दलितों में सचमुच किसी क्रान्ति का सूत्रपात होता। फिर भी उनके दिवंगत होने के बाद अगर जगह-जगह उनकी मूर्तियां लगाई जाती हैं तो तर्क समझ में आता है। यह भी एक दलित आईकॉन के देवताकरण का वाजिब प्रयत्न माना जा सकता है।

पर मायावती तो अपने जीते जी ही दलित देवताओं की इस पंक्ति में शामिल होना चाहती हैं। उन्होंने कभी कहा भी था कि क्यों दूसरी मूर्तियों पर चढ़ावा चढ़ाते फिरते हो, मैं जीती-जागती मूर्ति हूं, अपना चढ़ावा मुझे अर्पित करो। हो सकता है कि मायावती कुछ तबकों में पूजी भी जाती हों, लेकिन भारतीय सोच किसी जीवित व्यक्ति द्वारा खुद अपनी मूर्तियां लगाने को मंजूर नहीं करती। फिर मायावती तो जनता के पैसे से अपने साथ-साथ अपने चुनाव चिह्न हाथी की भी मूर्तियां लगवा रही हैं। इसलिए इसे रोका तो जाना ही चाहिए।

मधुसूदन आनंद


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