Sunday, March 29, 2009

धर्म का धंधा आत्मा का कारोबार


धर्म का धंधा आत्मा का कारोबार

इसमें कोई दो राय नही कि आज चर्च के अधिकतर संगठन धर्मांतरण की गतिविधियों में लिप्त है और उनका पूरा जोर अपनी संख्या बढ़ने पर है। अपना अधिकार क्षेत्र बढ़ाने के नाम पर उनमें भारत के अंदर और बाहर दान-दाताओं के सामने टकराव भी चलते रहते है। कर्नाटक में चर्चों पर हुए हमलों के दौरान यह बात सतह पर आती दिखाई दे रही है।
कर्नाटक में कुछ हिन्दू संगठनों ने `न्यू लाईफ फेलोशिप´ नामक एक संगठन के कामकाज पर एतराज जताया है। उनका कहना है कि संगठन बड़े पैमाने पर वंचित हिन्दुओं के मतांतरण के कार्य में लगा हुआ है। अपनी सफाई में राज्य के सबसे बड़े चर्च संगठन कैथोलिक बिशप कांफ्रेस ऑफ कर्नाटक के सदस्य बिशप डिसूजा ने बकायदा प्रेस कान्फ्रेस करके कहा कि वे मतांतरण की गतिविधियों में लिप्त नहीं है और उनका न्यू लाईफ फेलोशिप संगठन से कोई वास्ता नही है। अंदरुनी सूत्र बताते है कि कैथोलिक का कलर्जी वर्ग अपने अनुयायियों को न्यू लाईफ से बचाने में लगा हुआ है। न्यू लाईफ फालोशिप का गठन चार दशक पूर्व मुंबई में हुआ था। 1983 में पास्टर सैमुअल एवं उनकी धर्मपत्नी के संचालन में इसका कार्यक्षेत्र बेंगलुरु को बनाया गया और कई चर्चों की स्थापना की गई। आज कर्नाटक में न्यू लाईफ के 45 चर्च है जिनमें 15 दक्षिण कर्नाटक में है। राज्य में न्यू लाईफ कुछ कॉलेज भी चलाता है। न्यू लाईफ का मुख्य कार्य `धर्मप्रचार´ ही है हालांकि यह बात दीगर है कि संगठन के अधिकारी अपने को मतांतरण की गतिविधियों से अलग बताते है। सूत्रों की माने तो संगठन कर्नाटक, महाराष्ट्र , तमिलनाडु , केरल, गोवा, दिल्ली, उड़ीसा, उतर प्रदेश एवं पंजाब तक अपने पैर पसारे हुए है। कर्नाटक विशेषकर बेंगलुरु में बैठकर हजारो चर्च संगठन देश के विभिन्न हिस्सों में अपना कारोबार (धर्मप्रचार का कार्य) चला रहे है। दूसरे शब्दों में बेंगलुरु को चर्च अधिकारियों का दूसरा वैटिकन भी कहा जा सकता है। चर्च संगठनों द्वारा देशभर में चलाये जाने वाले शैक्षणिक संस्थान या सामाजिक संगठन धर्मांतरण की जमीन तैयार करने का काम करते है। उस जमीन पर खेती के लिये दूसरा वर्ग (पुरोहित/ पादरी) फिर चर्च के साम्राज्वाद के लिये कार्य करता है। चर्चों या चर्च अधिकारियों के प्रति होने वाली हिंसा के कारण भी मंतातरण की गतिविधियों को बल मिलता है ऐसी घटनाओं के चलते रहने से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उनके प्रति हमदर्दी का वातावरण पैदा होता है और इसी वातावरण का लाभ उठाकर भारतीय चर्च अधिकारी विशाल धन इकट्ठा करते हैं। इसे और ठीक से समझना चाहते हों तो आप विभिन्न
बैवसाइटों पर उड़ीसा दंगों के प्रभावितों के नाम पर जारी की गई अपीलों को देख सकते है। उड़ीसा एवं कर्नाटक की घटनाओं को लेकर अंतरराष्ट्रीय मंच पर चर्च अधिकारियों को अपना खेल खेलने का अच्छा अवसर प्राप्त हुआ है। वे विश्व समुदाय की सहनभूति बटोरने में सफल रहे है, वहीं दूसरी तरफ मतांतरण का विरोध करने वाले संगठन एवं लोग बचाव की मुद्रा में आ गये हैं. आज जिसको कटघरे में खड़ा होकर अपने अपराधों का हिसाब देना चाहिये वही मुद्दई बनकर अपने लिये इंसाफ मांग रहा है इसलिए यह स्थिति धर्मांतरण का विरोध करने वालों के लिये आत्म मंथन करने की है। चर्च अधिकारी विदेशी दान-दाताओं की सहायता से धर्म-प्रचार के कार्य में लगे हुये है. इस समय वंचित एवं आदिवासी समुदाय उनके निशाने पर हैं। दलित वर्ग से ज्यादा आदिवासी समुदाय में मतांतरण करने में चर्च को सफलता मिल रही है। इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि कैथोलिक अनुयायियों की कुल जनसंख्या का 10 प्रतिशत छोटा नागपुर (झारखंड) में है. अभी हिंसक घटनाओं का साक्षी रहे उ़ड़ीसा के कंधमाल में भी ऐसी ही स्थिति है। चर्च साम्राज्यवादी सोच के तहत अपना संख्याबल बढ़ाने के लिए छल और कपट का सहारा लेने से पीछे नही है। आज वो अपनी संख्या 2.5 प्रतिशत बताकर धर्मांतरण की गतिविधियों पर पर्दा डाल देता है परन्तु तथ्य कुछ और है. आज करोड़ों दलित वर्ग के लोग भले ही सरकारी जनगणना में हिन्दू की श्रेणी में शामिल हों लेकिन चर्च अधिकारी उनका मतांतरण करके अपने रिकार्ड में उन्हें अपना अनुयायी बना चुके है (उड़ीसा में पाण समुदाय का मामला सबके सामने है) एक अनुमान के मुताबिक दो नावों की सवारी करने वाले लोगों की संख्या तीन करोड़ से कम नही होगी। ऐसे ही लोगों को अनुसूचित जाति का दर्जा दिलवाने एवं संविधान संशोधन करवाने के लिये चर्च अधिकारी सुप्रीम कोर्ट से लेकर अंतरराष्ट्रीय संगठनों तक का दबाव भारत सरकार पर डलवा रहे है, ताकि उन्हें अपना खेल खेलने में असानी रहे। इवैंजलाईजेशन, यानी ईसाइयत का प्रचार - प्रसार एक बड़ा व्यवसाय है। यह व्यवसाय आत्माओं को बचाने या उनकी फसल उगाने पर निर्भर है। हाल ही में टाइम्स ऑफ इंडिया में प्रकाशित एक लेख `द बिजनैस ऑफ फेथ´ में बताया गया है कि चर्च अधिकारियों का मुख्य जोर वंचित वर्गों की बस्तियों में छोटे चर्चों का निर्माण करना है. उनमें देश की राजधानी दिल्ली एवं राज्यों की राजधानियां भी शामिल है। चर्च अधिकारी अपने लिये टारगेट समूहों की शिनाख्त करने में भी जुट गये है। इनमें वंचित एवं आदिवासी वर्ग के कुछ समूह आसान टारगेट माने गये है। विभिन्न खेमों में बंटा चर्च बाहर से भले ही अलग - अलग दिखाई देता हो परन्तु इवैंजलाइजेशन को बिना किसी रुकावट के जारी रखने पर वह एकमत है। केरल का बिलीवर्स चर्च पिछले डेड दशक में एक हजार 44 करोड़ रुपये की विदेशी सहायता ले चुका है। के पी योहन्न के नेतृत्व में चलते इस संगठन का मुख्य लक्ष्य आत्माओं की फसल काटना ही है। झारखंड, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, उड़ीसा, आंध्र प्रदेश आदि में इस का टकराव मतांतरण विरोधी संगठनों से होता ही रहता है।

`पुअर क्रिश्चियन लिबरेशन मूवमेंट´ के वरिष्ठ सहयोगी श्री मेहरबान जेम्स ने जून 2008 में दिल्ली में धर्मांतरित ईसाइयों के राष्ट्रीय सम्मेलन को सम्बोधित करते हुए कहा था कि ईसाई मिशनरियों ने धर्मांतरण को `व्यापार´ बना लिया है। जिन लोगों ने शोषण-मुक्ति की चाह में ईसाइयत को अपनाया था आज वह चर्च के अंदर ही गैर-बराबरी के दंश झेल रहे है। धर्म परिवर्तन के पीछे अगर कोई राजनीतिक मकसद छिपा है या धर्मातरण का काम किसी मल्टीनेशनल कंपनी की तरह चलाये जाने वाले व्यापार में बदल चुका है या वह हमें साम्राज्यवादी ताकतों का पिछलग्गू या औजार बनाता है तो ऐसे धर्मांतरण का विरोध होना चाहिये।

अब आप `सेविंथ डे एडवेंटिस्ट चर्च´ का उदाहरण ले तो इस चर्च ने साल 2004 में विदेशों से 5850 करोड़ रुपए हासिल किये और इससे 10 लाख लोगों का धर्मपरिवर्तन किया। कनाडा के धर्म प्रचारक रॉनवाट्स जो `सेविंथ डे एडवेंटिस्ट चर्च´ के साउथ एशिया डिवीजन के अध्यक्ष है, वे व्यापारिक वीजा लेकर 1997 में भारत में दाखिल हुए थे। उस समय तक चर्च के 2 लाख 25 हजार सदस्य थे जो 103 सालों के प्रयास से ईसाई बने थे। लेकिन इन पांच सालों में उनकी संख्या 7 लाख हो गई है। ग्लोबल इवेंजिलिज्म के निर्देशक मार्क फिन्ले ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि 2004 में 10 लाख 71 हजार 135 लोग ईसाई बनाये गये. यह संख्या पिछले 15 वर्षों में सबसे ज्यादा है। संगठन के दुनियां भर में तीस हजार पास्टर है जो इक्तालीस लाख लोगों को धर्मोपदेश देते है। भारत में 15 से 30 वर्ष के 6 लाख नौजवान/युवा चर्च के प्रचार, धर्मोपदेश में भीड़ जुटाने और चमत्कार करने के कार्य में लगे हुए है। इसमें कैथोलिक एवं अन्य प्रटोस्टेंट चर्च शामिल नही है।
अमरीका की एक संस्था धर्म प्रचार और धर्मांतरण की नई तकनीक से लैस होकर उतरी है। इसके लिए बाकायदा एक निर्माण कम्पनी बनाई गई है। खबर है कि अमरीकी राष्ट्रपति जार्ज बुश ने 2001 में फेथ बेस्ट सोशल सर्विसेस नामक एक संगठन बनवाया है। इसके लिए एक नया ह्वाईट हाउस बनाया जाना है जो धर्मांतरण के काम को हर तरह की मदद देगा। इसके निदेशक जिम टोव बनाये गये है जिन्हें धर्मांतरण का विषेशज्ञ माना जाता है। जाहिर है कि भारत में धर्मांतरण को साम्राज्यवादी शह मिली हुई है। कैथोलिक वैटिकन एवं प्रटोस्टेंट यूरोप के देशों के दिशा-निर्देश पर भारत में चर्च का साम्राज्यवाद खड़ा करने में लगे हुए है। एक सत्य और भी है इस तरह के धर्मांतरण का `ईसा मसीह´ की शिक्षाओं से कुछ लेना देना नही है क्योंकि इस तरह के व्यवसाय के चलते उनका (चर्च अधिकारियों) का जीवन कितना वैभव और सुख से भरा है जबकि जिनके बीच वे काम करते हैं वे घोर गरीबी में जी रहे हैं। इस वैभवपूर्ण जीवन के लिए वे पश्चिम के समृद्व देशों में धर्म के नाम पर पैसा बटोरने के लिए कई तरह के हथकंडें अपनाते हैं। इसमें विभिन्न संप्रदायों के बीच घिनौनी प्रतिस्पर्धा भी चलती हैं। अपने-अपने अनुयायियों की संख्या बढ़ाने के लिए उनमें एक होड़ लगी रहती हैं। हम ईसाई समाज के लोग भी यह समझते हैं कि धर्मांतरण का यह खेल खुद ईसाई समुदाय के हित्त में नही है फिर भी चर्च अधिकारी सदियों पूर्व `ईसाइत´ में मतांतरित हुये अनुयायियों को त्याग कर नई आत्माओं की फसल काटने निकल पड़े है।

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