Sunday, March 29, 2009

दलित पादरी होने का दर्द

दलित पादरी होने का दर्द

भारतीय चर्च अधिकारियों पर धर्मांतरित ईसाइयों के साथ गैर-बराबरी का सलूक करने के आरोप लम्बे समय से लगते रहे है। अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों से ईसाई बने करोड़ों लोगों को इस बात की पीड़ा सताती रहती है कि जिन धार्मिक, सामाजिक एवं आर्थिक विसंगतियों एवं शोषण के खिलाफ विद्रोह करते हुए उन्होंने चर्च का दामन थामा था, यहां भी उन्हें समानता एवं न्याय नहीं मिल पाया है। चर्च ढांचे पर आज भी उच्चजातीय ईसाइयों का कब्जा है। उन्हीं में से अधिकतर बिशप, पादरी, कार्डीनल, सामाजिक संगठनों के निर्देशक नियुक्त किये जाते है।
दलित ईसाई समुदाय से आए पादरियों की संख्या वैसे ही चर्च ढांचे में नागन्य है। फिर भी अगर किसी आर्च-डायोसिस (धर्म राज्य) में वे एक-दो प्रतिशत भी हो तो भी धर्मांतरित ईसाई समुदाय उनसे बड़ी आशा रखता है। दलित ईसाइयों में आक्रोश एवं निराशा तब बढ़ने लगती है जब उनके बीच से आए पादरियों/ननों के साथ ही आमनवीय व्यवहार शुरु कर दिया जाता है। दरअसल चर्च संसाधनों पर अपना एकाधिकार जमाए बैठे उच्च कलर्जी न तो दलित ईसाइयों और न ही उनके बीच से आए पादरियों/ननों को आगे बढ़ने के समान अवसर देने को तैयार होते हैं।देश की राजधानी दिल्ली में पिछले दिनों एक स्थानीय दलित ईसाई कैथोलिक पादरी `फादर विलियम प्रेमदास चौधरी´ के परिवार एवं उनके शुभचिंतकों ने नई दिल्ली स्थित कैथोलिक आर्च डायसिस पर उनके प्रति भेदभावपूर्ण रवैया अपनाए जाने के विरोध में प्रदर्शन किया व इस सबंध में उनके बड़े भाई श्री लक्ष्मी चंद ने बिषप विन्संट कान्सासियों को एक ज्ञापन दिया जिसमें उनसे क्षेत्रवाद, एवं जातिवाद के अधार पर व्यवहार न करने की अपील की गई है। फादर विल्यम के परिवार ने कैथोलिक बिशप विन्संट कान्सासियों को याद दिलाया है कि उन्होंने विल्यम को पादरी बनाने में अनेक दुख एवं कष्ट उठाये है, उनका परिवार एवं गांव की बहुसंख्यक जनसंख्या हिन्दू है उनके इस निर्णय (अपने भाई को पादरी बनाना) से उन्हें अपने ही परिवार एवं समाज से जो विरोध झेलना पड़ा उसका सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। हरियाणा के मूल निवासी श्री लक्ष्मी चंद का कहना है कि ग्यारह वर्ष के कठिन प्रशिक्षण के बाद जब मेरा भाई प्रेमदास चौधरी से ``फादर विलियम प्रेमदास चौधरी´´ बनकर चर्च में आया तो हमें इस बात की खुशी थी कि अब `फादर विलियम´ बिना किसी भेदभाव वंचित वर्गों की सेवा करेगा।
`फादर विलियम प्रेमदास चौधरी´ के बड़े भाई श्री लक्ष्मी चंद ने बिशप विन्संट कान्सासियों को दिये अपने ज्ञापन में कहा है कि उन्हें एवं उनके परिवार को यह जानकर गहरा सदमा पहुंचा है कि उन्होंने अपने जिस भाई (फादर विल्यम) को चर्च की सेवा करने के लिए ईष्वर के नाम पर अर्पित कर दिया था उसके साथ चर्च के अंदर ही क्षेत्रवाद एवं जातिवाद के नाम पर भेदभाव किया जा रहा है। दिल्ली के पीतमपुरा, कोन्डली, मयूर विहार आदि चर्चों के अंदर उनकी नियुक्ति होते हुए भी उन्हें स्वतंत्रता से कार्य करने से रोकने के लिये बिशप विन्संट कान्सासियों एवं उनके सहजातीय पादरियों ने कई रुकावटें खड़ी की। बिशप विन्संट कान्सासियों को दिये ज्ञापन में अरोप लगया गया है कि वह खुद एवं पादरियों का कलर्जी वर्ग स्थानीय दलित ईसाइयों एवं उनके वर्ग के पादरियों के साथ भाषा, क्षेत्रवाद एवं जातिवाद के अधार पर भेदभाव करता है। कैथोलिक आर्चडायसिस महत्वपूर्ण निर्णय लेते समय दलित वर्गों से आए पादरियों की राय को कोई महत्व नहीं देता, डायसिस उत्तर एवं दक्षिण भारतीय पादरियों के लिए अलग नीति का पालन करता है जो कि चर्च सिंद्वातों एवं ईसाइयत के विरुद्ध है।`फादर विलियम´ के परिवार का कहना है कि उनका मकसद बिशप या अन्य का अनादर करना नहीं है उन्हें यह कदम इसलिए उठाना पड़ा कि उन्होंने अपने परिवार के सदस्य को दूसरो के दुख एवं तकलीफों को कम करने के लिए ``ईसा मसीह´´ के नाम पर भेंट कर दिया था लेकिन यहां तो वह खुद दोयम दर्जे का अपमानित जीवन जीने के लिए बाध्य किया जा रहा है। प्रन्द्रह वर्षो से ज्यादा की निस्वार्थ चर्च की सेवा करने के बावजूद एक स्थानीय दलित ईसाई होने के कारण `फादर विल्यम´ के साथ यह अन्याय एवं भेदभाव हमें सहन नहीं है, चर्च अधिकारी अपने व्यवहार में परिवर्तन लाए। खुद `फादर विल्यम´ का कहना है कि आर्च बिशप ने उसे चर्च देने से पहले रिट्रीट (एक तरह से पापों की क्षमा) की शर्त लगा दी. हालांकि चर्च कानून के मुताबिक प्रत्येक पादरी को चार वर्ष में एक बार इसके लिये जाना होता है लेकिन उज्चजातिय पादरियों के न जाने के बाद भी उन्हें ऊचें पदों से नवाजा गया है। दरअसल भारतीय चर्च पर आज भी दक्षिण भारतीय विषेशकर पुर्तगाली लोगों के वंशजों का ही एकाधिकार बना हुआ है यह तथ्य अलग है कि पुर्तगाली यहां की राजनीति में हावी नहीं हो सके, लेकिन उनके वंशज कैथोलिक चर्च पर हावी है, क्योंकि वास्कोडिगामा यहां पोप के द्वारा भेजा गया पात्र था। पुर्तगाली मिशनरियों ने यहां पर पहले से बसे सीरीयन और पुरातन ईसाइयों को जोर-जबरिया अपना दास बना लिया। भले ही भारत पर अंग्रेजों का राज हो गया था किन्तु कैथोलिक चर्च की सत्ता पुर्तगालियों के पास ही थी। केरल और तमिलनाडु के उच्चजातीय ईसाइयों ने इनके साथ मिलकर कार्य करने में ही अपनी भलाई समझी, अंग्रेजों द्वारा भारत छोड़ने के बाद भी पोप की कूटनीति से कैथोलिक चर्च पर कोई फर्क नहीं पड़ा। `धार्मिक स्चतंत्रता के मूलाधिकार´ ने इन्हें और अधिक शक्ति प्रदान कर दी। जिसके कारण ये और स्वच्छंदता से इठलाने लगे। इनका अंहकार ऊचाइयां छूने लगा। विदेशी मिशनरियों की कृपा से छोड़ी गई अकूत चल और अचल संपति पर अपना एकाधिकार बनाये रखने के लिये चर्च अधिकारियों ने अपना साम्राज्य बढ़ाने के लिये भारत के वंचित वर्गों के बीच धर्मांतरण का खेल खेलना शुरू कर दिया। अपना संख्या बल बढ़ाते जाने के कारण जहां उन्हें विदेशों से अपार धन मिलने लगा वहीं बढ़ते वोट बैंक के कारण इन्हें भारतीय राजनेताओं का संरक्षण भी प्राप्त हो गया।

कैथोलिक चर्च के चौदह हजार पादरियों में इस समय एक हजार से भी कम दलित पादरी है एक सौ साठ बिशपों में से केवल आधा दर्जन ही दलित है। आश्चर्यजनक यह है कि कैथोलिकों की कुल जनसंख्या का सत्तर प्रतिशत धर्मांतरित ईसाई है लेकिन मुठ्ठीभर लोग चर्च के अकूत संसाधनों का दोहन अपने निजी स्वार्थों के लिये कर रहे है। अपना साम्राज्यवाद बढ़ाने के नाम पर चर्च अधिकारी भारतीय समाज के अंदर विभिन्न समुदायों में लगातार तनाव बढ़ाने वाली गतिविधियों को चला रहे है।

हाल ही में उड़ीसा के कंधमाल जिले में फैली व्यापक हिंसा के कारण दर्जनों लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। जान माल की भारी क्षाति उठानी पड़ी। वहां अनुसूचित जातियों से धर्मांतरित हुये लाखों `पाण´ जाति के लोगों को अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिलवाने की चर्च अधिकारियों का हठ एक बढ़े तनाव का कारण बन गया। दरअसल अनुसूचित जातियों से ईसाइयत में धर्मांतरित होने वाले लोग अपना अनुसूचित जाति का दर्जा खो देते है। इस कारण चर्च अधिकारियों को अपने धर्मांतरण के कार्यक्रम चलाने में भी कठनाई आती है इस कठनाई को जड़ से समाप्त करने के लिये चर्च अधिकारी पिछले कई दषकों से दलित ईसाइयों को अनुसूचित जातियों की सूची में ‘ाामिल करवाने को लेकर तथाकथित आदोंलन चला रहा है। उसकी इस सोच का परिणाम दलित ईसाइयों का विकास नही बल्कि अपने लिये नई जमीन की तलाष करना है। पिष्चमी देषों के संसाधनों से युक्त चर्च नेतृत्व की नजर देष के 16 करोड़ दलित हिन्दूओं पर है। चर्च नेतृत्व एक ही तीर से दो षिकार करने की नीति पर चल रहा है कि उसे मौजूदा धर्मातंरित गरीब ईसाइयों को अपने ढाचें में हिस्सेदारी भी न देनी पड़ी और धर्मांतरण की उसकी दुकान भी चलती रहे।भारतीय कैथोलिक चर्च पर वेटिकन के दिशा-निर्देश लागू होते है। वेटिकन ही बिशपों की नियुक्तियां करता है। कैथोलिक बिशप स्थानीय समुदाय को कम महत्व देते है उनके कार्यां में हस्तक्षेप करने वाले पादरियों का उत्पीड़न होना आम बात है। वर्ष 2000 में जेस्यूट पादरी अन्थोनी फर्नांडीज का उत्पीड़न इसलिए किया गया जब उन्होंने धर्म-परिवर्तन जैसा कार्य करने से इन्कार करते हुये बिषपों के असीमित अधिकारों को चौनती दी। झांसी आर्चडायसिस के पादरी हैनरी को स्थानीय गरीब ईसाइयों की वकालत करने के कारण उत्पीड़त होना पड़ा। आज भी देष में सैकड़ों पादरी दलित होने के कारण एवं अपने समुदाय की आवाज उठाने का दंड हाषिए पर खड़े होकर भुगत रहे है। करोड़ो दलित ईसाइयों के संगठन `पुअर क्रििष्चयन लिबरेशन मूवमेंट´ ने चर्च अधिकारियों से मांग की है कि वह दलित ईसाइयों और उनके वर्गों से आये पादरियों/ननों के साथ समान्ता का व्यवहार करे। प्रभु ईसा मसीह के सदेंश के अनुसार वह नमक की तरह रहें अगर नमक बेसुवाद हो गया तो फिर वह किसी काम का नहीं रहेगा, सिवाय इसके कि वह बाहर घूरे पर फेंका जाये और लोगों के पैरों तले रौंदा जायें।

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