Wednesday, March 25, 2009

बाबा साहब अंबेडकरः एक सफ़रनामा

बाबा साहब अंबेडकरः एक सफ़रनामा

संविधान निर्माता अंबेडकर ने वंचितों को उनके हक दिलाने के लिए हर मंच पर आवाज उठाई
दलितों के मसीहा, दलित उन्नायक, दलित मुक्ति के अग्रदूत, डॉक्टर साहेब, बाबा साहेब... ऐसी कितनी ही संज्ञाओं से बाबा साहेब अंबेडकर को याद किया जाता है.
भारत में दलित मुक्ति के आंदोलन में अंबेडकर जी का जो योगदान रहा है, वो विशेष महत्व रखता है.
आइए, डालते हैं एक नज़र, बाबा साहेब अंबेडकर के जीवन पर-
भीमराव रामजी अंबेडकर का जन्म 14 अप्रैल 1891 को मध्यप्रदेश के महू में हुआ था. माता भीमाबाई साकपाल और पिता रामजी की वो 14वीं संतान थे.
दादा और पिता के ब्रिटिश सेना में होने के चलते उनकी प्राथमिक शिक्षा सैन्यकर्मियों के बच्चों के लिए बने विशेष स्कूल में हुई.
लेकिन आगे का रास्ता आसान नहीं था. सेवानिवृत्ति के बाद जब उनके पिता सतारा (महाराष्ट्र) में आकर बसे तो स्थानीय स्कूल में उन्हें जातिगत भेदभाव का सामना करना पड़ा. पैतृक गाँव अंबावाड़े (रत्नागिरी) से ही उनके नाम के साथ अंबेडकर जुड़ गया.
कक्षा में एक कोने में अलग बैठने और शिक्षकों द्वारा उनकी किताबें तक न छूने जैसे हालातों से जूझते हुए उन्होंने वर्ष 1907 में बॉम्बे विश्वविद्यालय से मैट्रिकुलेशन की परीक्षा पास की.
वर्ष 1906 में नौ वर्षिया रमाबाई से विवाह.
आगे की पढ़ाई एलिफिंस्टन कॉलेज में की. वर्ष 1912 में राजनीति विज्ञान और अर्थशास्त्र से स्नातक होने के बाद उन्हें बड़ौदा में नौकरी मिल गई.
वर्ष 1913 में पिता के देहांत के बाद गायकवाड़ के महाराजा ने उन्हें छात्रवृत्ति देकर आगे की पढ़ाई के लिए अमरीका भेजा. कोलंबिया यूनिवर्सिटी से एमए करने के बाद वर्ष 1916 में पीएचडी की उपाधि हासिल की.
आगे की पढ़ाई के लिए वो लंदन रवाना तो हुए लेकिन गायकवाड़ के महाराजा ने छात्रवृत्ति रोक कर उन्हें वापस बुला लिया.
राजनीतिक जीवन
महाराजा ने उन्हें अपना राजनीतिक सचिव तो बना लिया, लेकिन महार होने के चलते कोई उनका आदेश नहीं मानता था.
अंबेडकर वर्ष 1917 के आखिर में बंबई लौट आए और 31 जनवरी 1920 को 'मूकनायक' नाम का एक पाक्षिक अख़बार निकालना शुरु किया.
इस दौरान उन्होंने बंबई के साइदेनहम कॉलेज ऑफ कॉमर्स एण्ड इकॉनॉमिक्स में अध्यापन भी किया.
लेकिन उच्च शिक्षा की ललक उन्हें रोक नहीं पाई और कुछ पैसे इकट्ठा करने के बाद वो वापस लंदन चले गए.
वहाँ से विज्ञान में डॉक्टरेट और बैरिस्टरी हासिल कर वह भारत लौटे.
जुलाई 1924 में 'बहिष्कृत हितकारिणी सभा' की स्थापना की.
अछूतों को सार्वजनिक तालाबों से पानी भरने का अधिकार दिलाने के लिए 1927 में मुंबई के नज़दीक कोलाबा के चौदार तालाब तक उन्होंने महाड़ पदयात्रा का नेतृत्त्व किया और वहीं 'मनुस्मृति' की प्रतियाँ भी जलाई.
वर्ष 1929 में अंबेडकर ने साइमन कमीशन का समर्थन करने जैसा विवादास्पद निर्णय लिया.
काँग्रेस ने इस आयोग का बहिष्कार कर संविधान का एक अलग ड्राफ्ट तैयार किया था जिसमें शोषित वर्गों के लिए प्रावधान नहीं होने के चलते अंबेडकर को उनके प्रति संदेह पैदा हो गया.
24 दिसम्बर 1932 को अंबेडकर और महात्मा गाँधी के बीच पूना पैक्ट हुआ. इस पैक्ट में अलग निर्वाचक मंडल के स्थान पर क्षेत्रीय और केंद्रीय विधानसभाओं में आरक्षित सीट जैसे विशेष प्रावधान किए गए.
अंबेडकर ने लंदन में हुए तीनों गोलमेज सम्मेलनों में भाग लिया और अछूतों के कल्याण की ज़ोरदार माँग उठाई.
वर्ष 1935 में वो गवर्नमेंट लॉ कॉलेज के प्रिंसिपल नियुक्त हुए और इस पद पर दो साल तक रहे.
अगस्त 1936 में उन्होंने 'इन्डिपेन्डेंट लेबर पार्टी' गठित की और 1937 में हुए बंबई विधानसभा के चुनावों में इस पार्टी ने 15 सीटें जीतीं.
आजाद भारत में
वर्ष 1947 में भारत के आज़ाद होने के बाद वो बंगाल से संविधान सभा के लिए सदस्य चुने गए और जवाहरलाल नेहरु ने उन्हें अपने मंत्रिमंडल में क़ानून मंत्री बनने के लिए आमंत्रित किया.
वे संविधान सभा की प्रारूप समिति के सभापति चुने गए और हिन्दू क़ानूनों को संहिताबद्ध करने के लिए अक्टूबर 1948 में उन्होंने संविधान सभा में हिन्दू संहिता विधेयक पेश किया.
विधेयक पर काँग्रेस के भीतर भारी मतभेद होने के कारण पहले इसे सितंबर 1951 तक टाल दिया गया, लेकिन बाद में जब इसमें काँट-छाँट की गई तो व्यथित अंबेडकर ने क़ानून मंत्री का पद छोड़ दिया.
बाद में स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में 1952 में वो लोकसभा का चुनाव हार गए लेकिन अपनी मृत्यु के समय तक वो राज्यसभा के सदस्य बने रहे.
14 अक्टूबर 1956 को उन्होंने अपने कई अनुयाइयों के साथ बौद्ध धर्म अपनाया.
कृतित्व
1916 में शोध निबंध ' दी इवोल्यूशन ऑफ ब्रिटिश फिनांश इन इण्डिया' के नाम से पुस्तक के रूप में प्रकाशित.
हालाँकि पहली पुस्तक 'कास्ट्स इन इण्डियाः देयर मैकेनिज्म, जेनेसिस एण्ड डेवेलपमेंट इन इण्डिया' थी.
1923 में शोध पत्र ' द प्रॉब्लम ऑफ़ रुपी' पूरा किया, जिसपर लंदन यूनिवर्सिटी ने डॉक्टरेट ऑफ साइंस यानी डीलिट की उपाधि से नवाज़ा.
न्यूयॉर्क में लिखे शोध पत्र पर 1937 में पुस्तक 'दि इनहेलेशन ऑफ़ कास्ट' प्रकाशित.
1941 से 1945 के बीच कई विवादास्पद किताबें और पर्चे प्रकाशित. इनमें से प्रमुख थे- 'थॉट्स ऑन पाकिस्तान' (इसमें उन्होंने मुस्लिम लीग के रवैये की आलोचना की), 'व्हाट गाँधी एण्ड काँग्रेस हैव डन टू द अनटचेबल्स' (इसमें उन्होंने गाँधी और काँग्रेस के दोहरे रवैये की आलोचना की).
'हू वर द शूद्राज?' में उन्होंने शूद्रों को अछूतों से अलग बताया.
1948 में पुस्तक ' द अनटचेबल्सः ए थिसिस ऑन द ऑरिजिन्स ऑफ़ अनटचेबिलिटी' में हिन्दू धर्म की विसंगतियों की कड़ी आलोचना की.
1956 में ' द बुद्धा एण्ड हिज धम्मा' को अंतिम रूप दिया, लेकिन यह उनके मरणोपरांत ही प्रकाशित हो सकी.
आख़िरी पुस्तक ' द बुद्धा ऑर कार्ल मार्क्स' थी. जिसकी पाण्डुलिपी को उन्होंने अपनी मृत्यु से चार दिन पहले ही अंतिम रूप दिया था.
1990 में उन्हें मरणोपरांत भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया गया.
मृत्यु
06 दिसंबर, 1956. (उनके अनुयायी उनकी मृत्यु को महापरिनिर्वाण के रूप में याद करते हैं.)

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