Sunday, May 10, 2009

दलित आंदोलन और राजनीति की कमियाँ

दलित आंदोलन और राजनीति की कमियाँ

प्रोफ़ेसर तुलसीरामजवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली


तुलसीराम मानते हैं कि आज जातीय सत्ता का दौर आ गया है
बाबा साहेब अंबेडकर का आंदोलन दलित मुक्ति का आंदोलन था और दलित मुक्ति से मेरा मतलब है कि वर्ण व्यवस्था के अभिशाप से दलित समाज को कैसे छुटकारा मिले.
दलितों की सदियों से जो समस्या चली आ रही है, चाहे वो छुआ-छूत की हो, अशिक्षा की हो, ग़रीबी की हो, सामाजिक बहिष्कार की हो, इन सबके मूल में वैदिक धर्म था. अंबेडकर जी ने इसी वैदिक व्यवस्था पर अपने आक्रमण से आंदोलन की शुरुआत की थी.
साथ ही उन्होंने दलित समाज को जाग्रत करने की नीव डाली. उनके पहले ऐसा काम गौतम बुद्ध को छोड़कर और किसी ने नहीं किया था.
उन्होंने मनु-स्मृति को जलाकर अपने आंदोलन की शुरुआत की थी. महाड़ में जाकर पानी के लिए आंदोलन किया. मंदिर प्रवेश की समस्या को उठाया. उन्होंने दलितों के लिए गणेश-पूजा की माँग भी उठाया. उन्होंने दलितों को जनेउ पहनाने का भी काम किया.
हालांकि वो ख़ुद धर्म में विश्वास नहीं करते थे पर दलितों की मानवाधिकार की लड़ाई में उन्होंने इन बुनियादी सवालों से काम करना शुरु किया था.
अंबेडकर जैसा कोई विकल्प नहीं
अंबेडकर का विकल्प कैसे पैदा होगा जब उनके विचार को ही नहीं अपनाया जाएगा.
आज के दलित नेता पूरी तरह से भटक गए हैं. अंबेडकर को कोई नहीं अपनाता है. कोई सत्ता का नारा देता है तो कोई सत्ता में भागीदारी का नारा देता है और इन सबका उद्देश्य केवल राजनीतिक लाभ और उसके ज़रिए आर्थिक लाभ ही है

उस सोच से आज के दलित नेता पूरी तरह से भटक गए हैं. अंबेडकर को कोई नहीं अपनाता है. कोई सत्ता का नारा देता है तो कोई सत्ता में भागीदारी का नारा देता है और इन सबका उद्देश्य केवल राजनीतिक लाभ और उसके ज़रिए आर्थिक लाभ ही है.
आज के नेतृत्व में सोच का ही अभाव है और इसीलिए जो काम बिना चुनावी राजनीति में गए अंबेडकर ने कर दिखाया उसे आज के दलित नेता बहुमत पाने या सरकार बनाने के बाद भी नहीं कर पाते.
अंबेडकर जी के अनुभवों से एक बात तो स्पष्ट तौर पर देखने को मिलती है कि जैसे ही दलित संगठित होना शुरू करते हैं, हिंदू धर्म में तुरंत प्रतिक्रिया होती है और धर्म को बचाने का जिम्मा लेने वाले तुरंत लचीलापन दिखाना शुरू कर देते हैं पर इस बात को दलित समाज का नेतृत्व नहीं अपना रहा है.
खैरलांजी की घटना वैदिक काल में दलितों पर हुए अत्याचारों की पुनरावत्ति ही है जिससे यह साफ है कि वैदिक परंपरा पर हमला किए बिना दलित मुक्ति की बात करना बेमानी है.
जातीय सत्ता का दौर
मंडल आयोग से पहले तक राजनीतिक पार्टियाँ सत्ता में आती थीं. मंडल आयोग की रिपोर्ट के सामने आने के बाद से अब जातियाँ सत्ता में आती है.
जातीय सत्ता का यह जो दौर है इसे दलित मुक्ति के तौर पर नहीं देखना चाहिए क्योंकि इसमें तो लोग जाति पर कब्जा करके उसे अपने स्वार्थों के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं

जातीय सत्ता का यह जो दौर है इसे दलित मुक्ति के तौर पर नहीं देखना चाहिए क्योंकि इसमें तो लोग जाति पर कब्जा करके उसे अपने स्वार्थों के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं.
सामाजिक व्यवस्था को बदलने का अभियान, जो कि दलित राजनीति का मुख्य मुद्दा हुआ करता था, वो मुद्दा मुद्दा ही रह गया है.
जातीय राजनीति से सत्ता में आने का लाभ कुछ लोगों को ज़रूर होता है. उस जाति के भी कुछ गिने-चुने लोगों को लाभ हो जाता है पर जातीय सत्ता ने न तो दलितों का कल्याण हो सकता है और न ही जाति व्यवस्था का अंत हो सकता है.
आज का दलित नेता हिंदुत्व पर कोई हमला नहीं कर रहा बल्कि हिंदुत्ववादी शक्तियों के साथ समझौते का काम कर रहा है. मायावती तो हर जगह जा-जाकर बता रही हैं कि ब्राह्मण ही बड़े शोषित और पीड़ित हैं.
अब तो इसी समीकरण के साथ काम हो रहा है कि कुछ ब्राह्मणों को ठीक कर लो, कुछ क्षत्रियों को मिला लो, कुछ बनियों को साथ ले लो और सत्ता में बहुमत हासिल कर लो. सत्ता की यह होड़ न तो सामाजिक मुक्ति की होड़ है और न ही सामाजिक परिवर्तन की.
पेरियार और अंबेडकर
दक्षिण में जो आंदोलन चला वो पेरियार के ब्राह्मण विरोध की उपज थी. बहुत ही सशक्त आंदोलन था पर दुर्भाग्य की बात यह है कि वो ब्राह्मण विरोधी आंदोलन ब्राह्मणवाद का विरोधी नहीं बन पाया.
ब्राह्मणों की सत्ता तो ज़रूर ख़त्म हुई और पिछड़ी जातियों के नेता सामने आए पर लेकिन हिंदुत्ववादी दायरे में रहते हुए उन्हीं कर्मकांडों को वो भी मान रहे हैं जिन्हें कि ब्राह्मण मानते थे.
दक्षिण में जो आंदोलन चला वो पेरियार के ब्राह्मण विरोध की उपज थी. बहुत ही सशक्त आंदोलन था पर दुर्भाग्य की बात यह है कि वो ब्राह्मण विरोधी आंदोलन ब्राह्मणवाद का विरोधी नहीं बन पाया

एक दूसरे ढंग का ब्राह्मणवाद वहाँ आज भी क़ायम है.
उत्तर भारत में कोई ब्राह्मण विरोधी आंदोलन नहीं चला. जो भी चला वो अंबेडकर का ही आंदोलन था.
अंबेडकर के आंदोलन का प्रभाव उत्तर में ज़्यादा रहा भी पर यहाँ दलित उस तरह से सत्ता पर कब्ज़ा नहीं कर पाए जिस तरह से पिछड़े वर्ग के लोगों ने दक्षिण में किया.
दलित राजनीति का जहाँ तक प्रश्न है, दक्षिण भारत में पिछड़ों की राजनीति दलित राजनीति को निगल गई है. वहाँ तो दलित राजनीति के नाम पर कुछ नहीं है.
जो भी है वो उत्तर भारत में हैं पर उसमें समझ की भी कमी है और बिखराव भी है. सही मायने में देखें तो यह अंबेडकर का दलित आंदोलन भी नहीं है और अंबेडकर की बताई हुई दलित राजनीति भी नहीं है.

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