Monday, March 30, 2009

दलदल में दलित राजनीति

दलदल में दलित राजनीति

आज के भारत की सबसे बड़ी दलित नेता उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती हैं। जनसंख्या के हिसाब से देश के सबसे बड़े प्रांत के मुख्यमंत्री पद पर एक दलित महिला का पहुंचना भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में एक बड़ी घटना है। यही नहीं, वे उत्तर प्रदेश की सबसे दबंग मुख्यमंत्री साबित हुई हैं और प्रशासन पर उनकी अच्छी पकड़ है। अफसर उनसे डरते हैं। आपराधिक घटनाओं में लिप्त अपने मंत्रियों, विधायकों और सांसदों पर भी उन्होंने कड़ी कार्रवाई की है।
लेकिन सत्ता के इस मुकाम पर पहुंचने के लिए मायावती को कई समझौते करने पड़े हैं। बहुजन समाज पार्टी की कोई अलग अर्थनीति या विकास नीति तो कभी नहीं रही है, लेकिन सत्ता के इस खेल में अपनी सामाजिक नीति को भी उन्होंने छोड़ दिया है। दलितों-शूद्रों को संगठित करके ब्रान्हमणवादी व्यवस्था का ध्वंस करने का लक्ष्य अब लुप्त हो गया है। इसकी जगह जातियों को अलग-अलग तौर पर गोलबंद करके चुनाव जीतने और सत्ता में आने के समीकरण बनाने की कवायद रह गई है, जिसमें ब्रान्हमण सहित द्विज जातियों से कोई परहेज नहीं है। यह सिलसिला वैसे बिहार-उत्तर प्रदेश के पिछड़ी जातियों के नेताओं ने शुरू किया था, पर मायावती ने भी इसमें महारत हासिल कर ली और उनसे आगे निकल गई हैं। वे इसके माध्यम से सत्ता-राजनीति में सफलता का एक मॉडल दलित-पिछड़े नेता उनकी नकल करने की कोशिश कर रहें हैं।
पिछले दिनों आई एक खबर के मुताबिक पूंजीपतियों, फिल्मी सितारों की तरह सबसे ज्यादा आयकर देने वालों की श्रेणी में मायावती भी हैं। वे इस देश में सबसे ज्यादा आयकर अदा करने वाली नेता हैं। यों तो इसे दूसरे नेताओं की तुलना में मायावती की ईमानदारी के रूप में भी देखा जा सकता है, लेकिन इससे यह तो साबित होता है कि राजनीति को बेशुमार कमाई का जरिया बनाने में वे पीछे नहीं हैं। यही नहीं, उम्मीदवारों से लाखों रूपए जमा करवा कर और अपने जन्मदिन पर लाखों की थेलियां-तोहफे लेकर मायावती ने भारतीय राजनीति में खुले भ्रष्टाचार और अंध नेतापूजा का नया अध्याय शुरू किया है। दलित इस देश के सबसे गरीब, वंचित, कुपोषित और संपत्तिहीन तबकों में से हैं। उनकी नेता करोड़ों की व्यक्तिगत आय और संपत्ति अर्जित करें, यह भारतीय राजनीति की एक नई विडंबना है। मायावती ने पिछले दिनों अपने उत्तराधिकारी के बारे में भी घोषणा ऐसी शैली में की है, जैसे दलित राजनीति मानो राजवंश जैसी वंशानुगत चीज है, जिसका फैसला सामूहिक रूप से न करके महारानी को व्यक्तिगत रूप से करना है।
मुहावरों में कहें, तो मनुवाद-ब्रान्हमणवाद के खिलाफ लड़ाई अगर पूंजीवाद और आधुनिक विकास नीति के खिलाफ संघर्ष से नहीं जुड़ेगी, तो भटक जाएगी और लक्ष्य हासिल नहीं कर पाएगी। इसीलिए मायावती, अठवले या शिबू सोरेन दलितों का उत्थान नहीं कर सकते। जगजीवन राम, बूटा सिंह या रातविलास पासवान जैसे नेताओं से भी काम नहीं चलेगा। जरूरत आज एक नए आंबेडकर की है, जिसमें कुछ अंश गांधी, लोहिया और भगतसिंह का भी हो।लगभग दो साल पहले एक प्रमुख हिंदी अखबार में दलित बुिद्धजीवी चंद्रभान प्रसाद का लेख निकला था। इस लेख में यह प्रतिपादित किया गया था कि जब तक दलितों में भी पूंजीपति नहीं बन सकते। अगर एक या दो फीसद दलित पूंजीपति बन भी गए, तो बाकी अठानवे फीसद दलितों का क्या होगा? बहरहाल, इस लेख से मायावती खेमे के बौिद्धक सोच का पता चलता है और स्वयं मायावती के करोड़पति बनने का औचित्य सिद्ध करने के लिए यह लिखा गया था, ऐसा मालूम पड़ता है। ऐसा नहीं है कि यह गिरावट सिर्फ दलित नेताओं में आई है। पूरी भारतीय राजनीति का तेजी से जो पतन हुआ है, यह उसी का प्रतिबिंब है। अफसोस यह है कि दबे-कुचले लोगों की जिस राजनीति में क्रांतिकारी संभावनाएं हो सकती थीं, उसने वे सारी बुराइयां अपना लीं, जो द्विज राजनीति में व्याप्त हैं। उसने भी शान-शोकत, सामंती तामझाम, व्यक्तिवाद, परिवारवाद, मौकापरस्ती, सत्तालिप्सा, भ्रष्टाचार, अपराधी तत्वों से साठगांठ और यथास्थितिवाद को पूरी तरह अपना लिया। एक नई राजनीति गढ़ने के बजाय उसने प्रचालित राजनीति और उसकी कार्यशैली की ही नकल और उसी से होड़ की।
विडंबना यह भी है कि देश के दलित-आदिवासी जिन सवालों से जूझ रहे हैं, उनसे यह राजनीति तेजी से कटती जा रही है। केरल में पिछले कई महीनों से चेंगारा में भूमि के लिए दलितों का आंदोलन चल रहा है। उन्हें समर्थन की जरूरत है, लेकिन किसी बड़े दलित नेता की फुरसत नहीं है। राजस्थान और मध्यप्रदेश के कई इलाकों में आज भी छुआछूत का प्रचलन है, कई जगह आज भी घोड़ी पर दलित दूल्हे की बरात बैंड-बाजे के साथ गांव में नहीं निकल सकती। हरियाणा, महाराष्ट्र, तमिलनाì, बिहार आदि में झज्झर, खैरलांजी जैसे दलितों पर अत्याचार के अनेक कांड हो रहे हैं। लेकिन इन पर कोई राष्ट्रीय आंदोलन या अभियान नहीं दिखाई देता। दलितों-पिछड़ों में बेरोजगारी और कंगाली बढ़ती जा रही हैं। वैश्वीकरण के नए दौर में पूरे देश में विस्थापन की बाढ़ आ गई है, जिसके सबसे ज्यादा शिकार आदिवासी और दलित हो रहे हैं। लेकिन इसके खिलाफ झंडा उठाता हुआ और विकास की पूरी दिशा पर प्रश्नचिन्हन लगाता हुआ कोई बड़ा आदिवासी-दलित नेता नहीं दिखाई देता।
आंबेडकर ने दलितों को ऊपर उठाने के लिए िशक्षा पर बहुत जोर दिया था। शायद इसीलिए उनकी अध्यक्षता में बने भारत के संविधान में दस वर्ष के अंदर देश के सारे बच्चों को शिक्षा देने का लक्ष्य रखा गया था। लेकिन आजाद भारत की सरकारों के द्विज-आभिजात्य नेतृत्व और नौकरशाही की इस लक्ष्य को पूरा करने में कोई दिलचस्पी नहीं थी। आज भी देश के आधे से ज्यादा बच्चे कक्षा आठवीं तक भी शिक्षा हासिल नहीं कर पाते हैं। अब शिक्षा के निजीकरण, बाजीरीकरण और बहुस्तरीकरण की जो मुहिम चली है और सरकारी शिक्षा व्यवस्था को जिस प्रकार नष्ट किया जा रहा है, उससे तो बड़ी संख्या में बच्चे शिक्षा से वंचित और बहिष्कृत होंगे। इसमें सबसे ज्यादा नुकसान दलितों का ही है। अचरज की बात है कि किसी भी स्थापित दलित नेतृत्व ने िशक्षा के इस ध्वंस और भेदभावमूलक शिक्षा को बढ़ाने के खिलाफ आवाज नहीं उठाई है। उच्च शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण पर तो उनका ध्यान है, लेकिन इस आरक्षण का पूरा लाभ उठाने के लिए पहले सारे दलित-पिछड़े बच्चो को अच्छी स्कूली शिक्षा मिलनी चाहिए और यह काम समान स्कूल प्रणाली पर आधारित मातृभाषा में शिक्षा की निशुल्क सरकारी व्यवस्था से ही संभव है, यह बात वे भूल जाते हैं।
भारतीय दलित राजनीति इस मुकाम पर कैसे पहुंची और उसका यह हश्र क्यों हुआ, इसका पूरा विश्लेषण तो राजनीतिशास्त्र के पंडित करेंगे। लेकिन यहां उसकी दो प्रमुख कमजोरियों पर गौर किया जा सकता है। एक, भारत की दलित राजनीति बहुत व्यक्तिपूजक रही है। नेता के उत्कर्ष और उसके सत्ता में पहुंचने को ही दलितों के उत्थान का पर्याय मान लिया जाता है। मजबूत संगठन और सामूहिक नेतृत्व के अंकुश के अभाव में ऐसे नेताओं का पतन रोकना मुश्किल हो जाता है। दो, दलित नेताओं ने सामाजिक गैरबराबरी पर तो अपना ध्यान केंद्रित किया, लेकिन आर्थिक विषमता और शोषण के खिलाफ नड़ाई से स्वयं को दूर रखा। जबकि भारतीय पूंजीवाद की विशिष्ट वास्तविकता में दोनों प्रकार की विषमताएं एक दूसरे में गुंथी हुई और एक दूसरे को मजबूत करने वाली हैं। दोनों केा अलग-अलग करके नहीं देखा जा सकता। अगर इन हालात को बदलना है, तो दोनों लड़ाई अधूरी रह जाती है। इसी एकांगी और अधूरी दृिष्ट के कारण दलित राजनीति ने समाज के अन्य वंचित तबकों के संघर्षशील तत्वों के साथ मोर्चा बनाने की जरूरत नहीं समझी ओर उनके नेतृत्व को भी अमीर-आभिजात्य वर्ग का हिस्सा बनने में संकोच नहीं हुआ। व्यवस्था परिवर्तन की समग्र लड़ाई की रणनीति के अभाव में तबको तक सीमित आंदोलन धीरे-धीरे सत्ता में उनके नेतृत्व के समायोजन के साथ व्यवस्था में ही खप जाते हैं। (जनसत्ता)

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