Monday, March 30, 2009

दलित चिंतन के मनुवादी

चंद्रभान प्रसाद अपने आप को ऐसा दलित चिंतक कहते हैं, जो अकेले ही अंग्रेजी में लिखता है. क्योंकि वे खुद अपने आप को दलित चिंतक कहते हैं और अंग्रेजी में लिखते हैं इसलिए लोगों में भी उनकी दलित चिंतक के रूप में अच्छी-खासी प्रतिष्ठा है. सीपीआई (एमएल) से अपना व्यक्तित्व बनाने की शुरूआत करनेवाले प्रसाद जब जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय पहुंचे तो उनका अंबेडकर प्रेम दहाड़े मारकर बाहर आ गया, अब तो वे मानते हैं कि वामपंथी और संघी दो ऐसे संगठन हैं जो दलितों के सबसे बड़े विरोधी हैं. हिन्दू तो दलितों के सनातन दुश्मन हैं ही.

चंद्रभान प्रसाद पहली बार लाईम-लाईट में तब आये जब मध्य प्रदेश सरकार ने उन्हें एक रिपोर्ट बनाने का जिम्मा दिया. दलितों के लिए बनी यह रिपोर्ट काफी चर्चित हुई. वे दलित चिंतक के रूप अखबारी दुनिया में थोड़ा और गहरे धंस गये. लेकिन ख्याति उन्हें तब ज्यादा मिलनी शुरू हुई जब उन्होंने मैकाले को दलितों के भगवान के रूप में स्थापित करना शुरू कर दिया. तार्किक रूप से इसमें अन्यथा कुछ भी नहीं है. अगर समाज का प्रभु वर्ग मैकाले की अघोषित पूजा करके मलाई काट रहा है तो वंचित उस मलाई से क्यों वंचित रहें? यहां दलित चिंतन के पैरोकार पता नहीं क्यों नयी तरह की सामाजिक व्यवस्था के ब्राह्मण को कोसने की बजाय जातीय ब्राह्मणों को गाली देने का आधार बनाये रखते हैं.

नयी आर्थिक नीतियों ने नये तरह के ब्राह्मणवाद को जन्म दिया है जिसका आधार जातीय तो कतई नहीं है. नये ब्राह्मणवाद को आधार बनायें तो आज के जितने दलित चिंतक हैं वे सब बहुत स्थापित ब्राह्मण हैं. वे मंहगी जीवनशैली में रहते हैं और उन दलितों का अपने समग्र विकास के लिए भरपूर इस्तेमाल करते हैं जिनके लिए समचुच काम करने की जरूरत है. मसलन, रामराज से उदितराज बने महान दलित नेता अक्सर लोगों को अपनी गाड़ी का माडल दिखाने में अपनी शान समझते हैं. नियमित रूप से नव-ब्राह्मणवाद की उन पार्टियों में जाकर जाम पकड़ने से भी कोई ऐतराज नहीं करते जिनको गाली देकर इनकी सारी राजनीति चलती है. आप सबने कई दफा यह सुना ही होगा कि मायावती दलित की बेटी हैं. लोग भूल न जाएं इसलिए वे बीच-बीच में राज-समाज को याद दिलाती रहती हैं कि वे दलित की बेटी हैं. लेकिन जब भी उनकी संपत्ति और शानोशौकत में बेतहासा बहनेवाले पैसे पर कोई अंगुली उठाता है तो यह मायावती की आलोचना की बजाय दलित की बेटी पर हमला हो जाता है. वे चलती हैं तो उनके साथ ४५-४५ लाख की तीन लैण्डक्रूजर चलती है जो पूरी तरह से बुलेटप्रूफ है. दिल्ली के सबसे मंहगे इलाके सरदार पटेल रोड के उनके बेनामी घर की बात छोड़ भी दें तो उनके खुद के पास अकूत धन संपत्ति है. जाहिर यह सब दलित राजनीति की देन है. सवाल जरूर पूछना चाहिए कि क्या यही सब दलितों का अभीष्ट है जिसे आपने पा लिया है?

राजनीति में दलितों का शोषण ब्राह्मणवादी मानसिकता ने किया और उन्हें वोट से ज्यादा कभी कुछ माना नहीं. इस कटु सत्य का दूसरा अति कसैला पहलू यह है कि दलित नेताओं ने भी दलितों को इससे ज्यादा कुछ माना नहीं कि उनके वोट की बदौलत इनकी राजनीति चलती है. समाज के शोषित वर्ग का सचमुच भला हो इसके लिए इस नव-ब्राह्मणवाद के पास प्रतिक्रिया के अतिरिक्त कुछ नहीं है. और यह प्रतिक्रिया का स्वाभाविक परिणाम होता है कि आप जिसके खिलाफ प्रतिक्रिया करते हैं आप वही हो जाना चाहते हैं. दलितों के नेता जिस ब्राह्मणवादी मानसिकता की प्रतिक्रिया के आधार पर अपने आप को टिकाये हुए हैं, मौका मिलते ही सबसे पहले वे नव-ब्राह्मण हो जाते हैं. चंद्रभान प्रसाद का मैकाले की प्रतिष्ठा करवाना इसी तरह की एक प्रतिक्रिया है जो वही हो जाना चाहता है जिससे वह लड़ रहा है. लेकिन बात यहां आकर खत्म नहीं होती. बात यहां से शुरू होती है.

मैकाले आयेगा तो यूरोप भी आयेगा और वह विकास का माडल भी आयेगा जो आज पूरी दुनिया में मानवता और पर्यावरण के सामने सबसे बड़ा संकट बनकर खड़ा है. नवभारत टाईम्स में लिखे गये एक लेख में चंद्रभान प्रसाद लिखते हैं कि "हिंसा पसंद युवकों में उम्मीद की किरण कैसे पैदा की जाए? कैसे इन्हें जिंदगी में व्यस्त किया जाए? उम्मीद की एक किरण है. वह उम्मीद पूंजीवाद में है. बशर्ते पूंजीवाद को गांवों में ले जाया जाए......खरबों डालर की संपत्ति का कोई इस्तेमाल नहीं है. इस दबी संपत्ति को पूंजीवाद ही मुक्त कर सकता है." निश्चित रूप से यह लेख केवल दलितों के लिए नहीं लिखा गया है बल्कि एक दलित चिंतक के द्वारा लिखा गया है. हमारा यह अंग्रेजी में लिखनेवाला दलित चिंतक सुझाव दे रहा है कि पूंजीवाद को गांव की नसों में भींच दिया जाए तो अरबो डालर की बेकार संपत्ति का बहाव शुरू हो जाएगा. और कुछ जानने से पहले ऐसा लिखनेवाले चंद्रभान प्रसाद तीन साल घोषित तौर पर सीपीआई (एमएल) के काडर के रूप में काम कर चुके हैं. अब यह भी जानिये कि वे जिस पूंजीवाद को गांव की नसों में भींचने की वकालत कर रहे हैं वह ऐसी व्यवस्था है जो दुनिया की सारी समृद्धि सोखकर कुछ खास देशों में निचोड़ आती है. अगर चंद्रभान प्रसाद की पूंजीवादी सोच को सही मान लें तो हमें गांधी को खारिज करना होगा, यह भी खारिज करना होगा कि भारत की अपनी कोई आर्थिक व्यवस्था थी जिसे इसी पूंजीवादी मानसिकता ने ध्वस्त कर दिया और वह जो व्यवस्था थी उसके मूल में वही लोग थे जिन्हें चंद्रभान प्रसाद दलित कहकर परिभाषित करते हैं.

ऐसा बिल्कुल मत समझिए कि चंद्रभान प्रसाद जैसे दलित चिंतक दलित की बात करते हैं तो उसमें शूद्र भी आ जाते हैं. उनकी परिभाषा में "शुद्र जब सत्ता में थे तो उन्होंने ब्राह्मणों को ठिकाने लगाने की बजाय दलितों पर अत्याचार किये." वे कहते हैं कि शूद्रों ने हमेशा दलितों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया है और शूद्र दलितों के खिलाफ एक ब्राह्णवादी हथियार की तरह काम करता है. फिर भी वे ऐसा मानते हैं दलितों और शूद्रों में एकता हो सकती है. उनकी इस कृपापूर्ण सोच का आदर करते हुए यह जरूर लगता है ऐसे दलित चिंतकों ने भी अपने से नीचे एक जाति या वर्ग बना रखा है जिसको देखकर वे श्रेष्ठता बोध धारण कर सके. ऐसे दलित चिंतकों की सोच-समझ पर एक बार पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने कहा था आजादी के आंदोलन और नये भारत के निर्माण में दो बड़े लोगों को देखें तो एक ने एक दलित महिला के वस्त्रों की तंगी देखकर जीवनभर के लिए लंगोटी पहन ली और उसी समाज से आये एक दूसरे व्यक्ति ने कोट टाई पहन ली. लेकिन दुर्भाग्य देखिए कि दलित उस लंगोटीधारी को अपना नेता नहीं मानते. निश्चित रूप से उनका संकेत गांधी और अम्बेडकर की ओर था. इसमें अन्यथा कुछ नहीं है. दमित वर्ग हो या व्यक्ति उसको प्रतीक और लक्ष्य चाहिए जिसे हासिल करके वह विजेता होने का दावा कर सके. ऐसे में अम्बेडकर दलितों के सामने प्राप्ति के लिए एक लक्ष्य देते हैं, लेकिन दुर्भाग्य से वह लक्ष्य हमारे अपने ही लोगों को अभारतीय बना देता है. चंद्रभान प्रसाद को निश्चित रूप से इस बारे में सोचना चाहिए कि जड़ें आसमान में होती हैं या जमीन में? अगर प्रकृति का सिद्धांत जड़ों को जमीन से जोड़ता है तो चंद्रभान प्रसाद जैसे दलित चिंतक कौन सा अचंभा स्थापित करना चाहते हैं?

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